अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से ठीक हफ्ते भर पहले होने वाले 2+2 वार्ता के मायने

इस सप्ताह अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो व रक्षा मंत्री मार्क एस्पर भारत आ चुके हैं। इसमें खास क्या है? यह यात्रा अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव और परिणाम से ठीक एक सप्ताह पहले हो रही है। महामारी के बीच अमेरिकी प्रशासन के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंत्री क्या सिर्फ 2+2 वार्ता की अगली प्रक्रिया के लिए भारत आ रहे हैं?

इससे भी अहम यह है कि भारत इनसे इतने आत्मविश्वास से करीबी क्यों बढ़ा रहा है, जबकि किसी को नहीं पता कि हफ्तेभर में कौन जीतेगा? सामान्य हालात में भारत का रूढ़िवादी सिस्टम इंतजार करना उचित समझता। लेकिन, यह सामान्य समय नहीं है। केवल इसलिए नहीं कि चीन लद्दाख में छह माह अड़ा है।

बल्कि अमेरिका के लिए भारत शीर्ष विदेशी और सामरिक नीति प्राथमिकता नहीं है। लेकिन तस्वीर इससे बदलती है कि चीन अब अमेरिका ही नहीं, बल्कि यूरोप, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान सहित सभी लोकतंत्रों के लिए चिंता का विषय है।

अरब भी चीन और ईरान के संबंधों को डर से देख रहे हैं और उनकी चीन-पाकिस्तान संबंधों पर भी नजर है। शी जिनपिंग के चीन ने उसके पूरब, पश्चिम और दक्षिण में एक घबराहट पैदा कर दी है। रूस अब चीन का असली शक्तिशाली सहयोगी है। पाकिस्तान को हम इससे बाहर कर रहे हैं, क्योंकि चीन से उसके सबंध सहयोग की बजाय निर्भरता वाले हैं।

रूस चीन को ईंधन की आपूर्ति करता है। रूस के पास तकनीक और औद्योगिक आधार है। चीन के पास सेना है, जिसे उसकी तकनीक की जरूरत है। इसी वजह से रूस के उद्योगों और चीनी सेना के बीच नया सैन्य-औद्योगिक गठबंधन उभरता दिख रहा है। यह एक जटिल और नई वास्तविकता है।

पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसी दो अप्रत्याशित नाभिकीय शक्तियों को चीन का पहले ही संरक्षण हासिल है। इस क्षेत्र में जापान और ऑस्ट्रेलिया ही दो संतुलन बनाने वाली शक्तियां हैं, लेकिन उन पर भी दबाव है, ताइवान को डराया गया है, हॉन्गकॉन्ग पहले ही चीन के पास है। दुनिया में उथल-पुथल वाले इस साल में चीन ही ऐसी अर्थव्यवस्था है, जो प्रगति करेगी। यही बात उसे अमेरिका में द्विपक्षीय रणनीतिक चिंता का विषय बनाती है।

गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरितमानस में लिखा है कि भगवान राम ने सभी मनुष्यों और राष्ट्रों के लिए एक ही महत्वपूर्ण सिद्धांत दिया था कि ‘भय बिन होय न प्रीति’। लेकिन यह उल्टी तरह से भी काम करता है।

उदाहरण के लिए, कोई भी यह कहने से पीछे नहीं हटता कि भारत-अमेरिका संपर्कों की तेजी, क्वाड की जरूरत व मालाबार में नौसेना अभ्यास के लिए ऑस्ट्रेलिया की वापसी का चीन से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन, एक सप्ताह पहले भारत यात्रा पर आए अमेरिका के विदेश उपमंत्री स्टीफन ई. बेगन यह कहने से नहीं हिचके कि चीन ही सबसे गंभीर समस्या है।

क्वाड को तो मैं चीन पीड़ित समाज भी कहता हूं। चीन ने इन देशों में हर सावधान राजनयिक की डेस्क पर हलचल मचा दी है। सी. राजा मोहन ने 25 अगस्त को द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा कि कैसे कूटनीतिक स्वायत्तता की भारत की परिभाषा बदल गई है। वे कहते हैं कि 1990 में शीत युद्ध के बाद भारत के लिए कूटनीतिक स्वायत्तता का मतलब रणनीतिक हितों और राजनीतिक स्वतंत्रता को अमेरिका जैसी प्रभावी ताकत से मुक्त रखना था।

यह जरूरी था, क्योंकि क्लिंटन के लोग भारत-पाक को दुनिया में सबसे खतरनाक जगह समझते थे, जहां परमाणु युद्ध का खतरा था। इसीलिए भारत ने रूस संग पुराने संबंध जिंदा करने के साथ ही चीन की ओर कदम बढ़ाया। आज कूटनीतिक रणनीति की और तीखी परिभाषा हो गई है।

अब यह भारत की क्षेत्रीय अखंडता, संप्रभुता और चीन से कद को मिल रही चुनौती दूर करना है। मैंने 2018 में प्रधानमंत्री मोदी का सिंगापुर में शंग्री-ला बैठक का भाषण भी पढ़ा है, जहां उन्होंने कूटनीतिक स्वायत्तता की एकदम अलग परिभाषा दी थी। उन्होंने कहा था कि भारत अपना रास्ता खुद बनाएगा और बड़ी शक्तियों को एक और प्रतिस्पर्धा से बचना चाहिए। लेकिन, आज शायद प्रधानमंत्री वह बात न दोहराएं।

जब एक शीत युद्ध चलता है या आज की तरह, नया शुरू होता है तो भारत कभी भी निरपेक्ष नहीं रह सकता। इससे इंदिरा या नेहरू के कई समर्थक नाराज हो सकते हैं। लेकिन, मैं इन दोनों की और भी प्रशंसा इसलिए करता हूं कि दिखावा चाहे जो रहा हो, उन्होंने एक पक्ष को चुनने में कभी शर्म नहीं की।

1962 में नेहरू ने अमेरिका को बहुत देर से चुना और उनकी बेटी ने सोवियत संघ को। कम से कम 1969-1977 और फिर 1980-1984 तक उनके शासन में भारत चाहे जो हो, निर्गुट था। ‌‌‌वे सोवियत संघ की सहयोगी सिर्फ इसलिए थीं कि वे राष्ट्रीय हित में काम कर रही थीं। आज भी वैसा ही चयन किया गया है।

भारत दो दशकों से इस दिशा में बढ़ रहा था और अमेरिका ने भी समान उत्साह दिखाया। भारत और अमेरिका ने चयन कर लिया है। यह पूर्ण आलिंगन है। दोनों देशों, खासकर अमेरिका में मामला द्विपक्षीय है। वहां हफ्तेभर में बदलाव देखने को मिल सकता है। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के एक हफ्ते पहले भारत में यह 2+2 बैठक हो रही है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
शेखर गुप्ता, एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’।


Source From
RACHNA SAROVAR
CLICK HERE TO JOIN TELEGRAM FOR LATEST NEWS

Post a Comment

[blogger]

MKRdezign

Contact Form

Name

Email *

Message *

Powered by Blogger.
Javascript DisablePlease Enable Javascript To See All Widget