September 2020

बिहार आबादी के लिहाज से देश का तीसरा बड़ा राज्य है। मुस्लिम आबादी भी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद यहां सबसे ज्यादा है। प्रदेश की 243 सीटों में से 38 ऐसी हैं, जहां मुस्लिम वोटर 20% से ज्यादा हैं। ये वोट महा गठबंधन का परंपरागत वोट बैंक कहे जाते हैं। लेकिन, जदयू, लोजपा जैसे एनडीए के दलों को भी मुस्लिम वोट मिलता है। इस चुनाव में मुस्लिम वोटर किस तरफ जाएगा ये तो 10 नवंबर को पता चलेगा। लेकिन, पिछले चुनावों में मुस्लिम वोटर किसके साथ रहा है और कितने मुस्लिम विधायक बन रहे हैं, आइए जानते हैं...

पिछली बार 23 मुस्लिम विधायक चुने गए थे

2015 के चुनाव में 23 मुस्लिम विधायक चुनकर आए थे। 2000 के चुनावों के बाद ये पहली बार था, जब इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम विधायक जीते थे। 2000 के चुनाव में 29 मुस्लिम विधायक चुने गए थे।

2015 में सबसे ज्यादा 11 मुस्लिम विधायक राजद से थे। कांग्रेस के 27 विधायकों में से 6, जदयू के 71 में 5 मुस्लिम विधायक बने। भाजपा के 53 में से एक भी विधायक मुस्लिम नहीं है।

1985 में सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक जीतकर आए थे

1951 में बिहार में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए। उस वक्त यहां 276 सीटें होती थीं। उस वक्त कुछ सीटों पर एक से ज्यादा विधायक भी चुने जाते थे। 1951 में कुल 330 विधायक चुने गए थे, जिनमें से 24 मुस्लिम थे।

उसके बाद 1957 में चुनाव हुए, जिसमें 319 विधायकों में से 25 मुस्लिम थे। 1962 में 21 मुस्लिम विधायक जीते। सबसे ज्यादा 34 मुस्लिम विधायक 1985 के चुनाव में चुनकर आए थे। जबकि, सबसे कम 16 मुस्लिम विधायक अक्टूबर 2005 के चुनाव में आए।

6 साल में तीन चुनाव, किस तरफ गए मुस्लिम वोट?

पिछले 6 साल में बिहार में तीन चुनाव हो चुके हैं। जिनमें 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव और 2015 का विधानसभा चुनाव है। तीनों ही बार ज्यादातर मुस्लिम वोट राजद के साथ गए।

2014 का लोकसभा चुनावः सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे में आया था कि इस चुनाव में 60% से ज्यादा मुस्लिम वोट (ओबीसी मुस्लिम भी शामिल) राजद-कांग्रेस गठबंधन को मिले थे। नीतीश की जदयू को 21% मुसलमानों ने वोट किया। जबकि, भाजपा को मुसलमानों ने पूरी तरह से खारिज कर दिया।

2015 का विधानसभा चुनावः इस चुनाव में राजद-कांग्रेस और जदयू के महा गठबंधन को मुसलमानों के 77.6% वोट मिले थे। जबकि, भाजपा और उसके सहयोगियों को महज 7.8% वोट मिले।

2019 का लोकसभा चुनावः पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए (भाजपा+जदयू+लोजपा) बिहार की 40 में से 39 सीटें जीतने में कामयाब रहा था। सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के मुताबिक, इस चुनाव में महा गठबंधन (राजद+कांग्रेस+हम+वीआईपी+रालोसपा) को 77% से ज्यादा मुस्लिम वोट मिले थे, जबकि एनडीए को सिर्फ 6% मुसलमानों ने वोट किया।



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JDU BJP Vs RJD AIMIM Congress Muslims Candidate Data In Bihar Vidhan Sabha (Assembly) Election; All You Need To Know


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बिहार के सहरसा जिले में एक गांव पड़ता है। नाम है पनगछिया। इस गांव में 26 जनवरी 1956 को एक लड़के का जन्म होता है। उसके दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। ये लड़का जब 17 साल का था, तब बिहार में जेपी आंदोलन शुरू होता है और यहीं से उसके राजनीतिक करियर की शुरुआत भी।

आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो 1978 में उस समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सहरसा आए थे। उस समय इस 22 साल के लड़के ने उन्हें काले झंडे दिखाए।

कहते हैं कि बिहार की राजनीति दो चीजों पर चलती है। पहली है जाति और दूसरी है दबंगई। इस लड़के ने इन दोनों का ही सहारा लेकर राजनीति में कदम रखा। इस लड़के की इतनी बात हो चुकी है, तो अब नाम भी जान ही लीजिए। उसका नाम है आनंद मोहन सिंह।

बिहार की राजनीति के बाहुबली नेता आनंद मोहन। जो इस वक्त एक डीएम की हत्या के मामले में सजा काट रहे हैं। इनकी पत्नी और पूर्व सांसद लवली आनंद हाल ही में राजद में शामिल हुई हैं।

आनंद मोहन और लवली की शादी 13 मार्च 1991 को हुई थी। आनंद मोहन एक बार विधायक और दो बार सांसद रह चुके हैं। लवली आनंद एक बार की सांसद हैं।

1983 में तीन महीने जेल में गुजारे, 1990 में चुनावी राजनीति में उतरे

80 के दशक में बिहार में आनंद मोहन सिंह बाहुबली नेता बन चुके थे। यही वजह थी कि उन पर कई मुकदमे भी दर्ज हुए। 1983 में पहली बार तीन महीने के लिए जेल जाना पड़ा। जेल से आने के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति में कदम रखा।

1990 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए। आनंद मोहन ने जनता दल के टिकट पर महिषी से चुनाव लड़ा और कांग्रेस के लहतान चौधरी को 62 हजार से ज्यादा वोट से हरा दिया।

ये वो समय था जब देश में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं। इन सिफारिशों में सबसे अहम बात थी सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27% का आरक्षण देना। जनता दल ने भी इसका समर्थन किया।

लेकिन, आनंद मोहन ठहरे आरक्षण विरोधी। उन्होंने 1993 में जनता दल से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई, जिसका नाम ‘बिहार पीपुल्स पार्टी’ यानी बीपीपी रखा। बाद में समता पार्टी से हाथ मिला लिया।

आनंद मोहन के घर बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। इस तस्वीर में जो दिख रहे हैं, वो हैं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। एक समय बिहार में आनंद मोहन को लालू का विकल्प देखा जाने लगा था।

डीएम की हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए, पहले नेता जिन्हें मौत की सजा मिली थी

जिस समय आनंद मोहन ने अपनी चुनावी राजनीति शुरू की थी, उसी समय बिहार के मुजफ्फरपुर में एक नेता हुआ करते थे छोटन शुक्ला। आनंद मोहन और छोटन शुक्ला की दोस्ती काफी गहरी थी।

1994 में छोटन शुक्ला की हत्या हो गई। आनंद उनके अंतिम संस्कार में भी पहुंचे। छोटन शुक्ला की अंतिम यात्रा के बीच से एक लालबत्ती की गाड़ी गुजर रही थी, जिसमें सवार थे उस समय के गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया।

लालबत्ती की गाड़ी देख भीड़ भड़क उठी और जी कृष्णैया को पीट-पीटकर मार डाला। जी कृष्णैया की हत्या का आरोप आनंद मोहन पर लगा। आरोप था कि उन्हीं के कहने पर भीड़ ने उनकी हत्या की। आनंद की पत्नी लवली आनंद का नाम भी आया।

आनंद मोहन को जेल हुई। 2007 में निचली अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुना दी। आनंद मोहन देश के पहले पूर्व सांसद और पूर्व विधायक हैं, जिन्हें मौत की सजा मिली।

मौत की सजा को उन्होंने हाईकोर्ट में चुनौती दी। पटना हाईकोर्ट ने दिसंबर 2008 में मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। बाद में वो सुप्रीम कोर्ट गए। सुप्रीम कोर्ट ने भी जुलाई 2012 में पटना हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई। आनंद मोहन अभी भी जेल में ही हैं।

जेल में थे, लेकिन चुनाव जीतते रहे

1996 में लोकसभा चुनाव हुए। उस वक्त आनंद मोहन जेल में थे। जेल से ही उन्होंने समता पार्टी के टिकट पर शिवहर से चुनाव लड़ा। उस चुनाव में उन्होंने जनता दल के रामचंद्र पूर्वे को 40 हजार से ज्यादा वोटों से हराया।

1998 में फिर उन्होंने शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर। ये चुनाव भी उन्होंने जीत लिया। 1999 और 2004 के लोकसभा चुनाव में भी आनंद मोहन खड़े हुए, लेकिन हार गए।

खुद तो राजनीति में थे, पत्नी को भी लाए

आनंद मोहन का नाम उन राजनेताओं में आता है, जो अपनी पत्नी को भी राजनीति में लेकर आए। आनंद मोहन ने 13 मार्च 1991 को लवली सिंह से शादी की। लवली स्वतंत्रता सेनानी माणिक प्रसाद सिंह की बेटी हैं।

शादी के तीन साल बाद 1994 में लवली आनंद की राजनीति में एंट्री उपचुनाव से हुई। 1994 में वैशाली लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए, जिसमें लवली आनंद यहां से जीतकर पहली बार संसद पहुंचीं।

बिहार में लवली आनंद को लोग भाभीजी कहकर बुलाते हैं। लोग बताते हैं कि जब भाभीजी रैली करने आती थीं, तो लाखों की भीड़ इकट्ठा होती थी। इतनी भीड़ तो आनंद मोहन की रैलियों में भी नहीं आती थी। बिहार की राजनीति को करीब से देखने वालों का कहना है कि लवली आनंद की रैलियों में भीड़ देखकर उस समय लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे सरीखे नेता भी दंग रह जाते थे।

हालांकि, लवली आनंद की रैलियों में आने वाली भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाती थी। जब वोटिंग होती थी, तो लवली आनंद की हार ही होती थी।

लवली पार्टियां बदलती रहीं, लेकिन जीत न सकीं

आनंद मोहन और लवली आनंद के बारे में कहा जाता है कि जितनी तेजी से लोग कपड़े नहीं बदलते थे, उतनी तेजी से तो ये पार्टियां बदल लेते थे।

लवली आनंद पहली बार 1994 में उपचुनाव जीतकर सांसद बनी। उस समय उन्होंने बिहार पीपुल्स पार्टी से चुनाव लड़ा था। उसके बाद 1999 के लोकसभा चुनाव में भी वैशाली से ही खड़ी हुईं, लेकिन हार गईं।

2009 का लोकसभा चुनाव लवली ने कांग्रेस के टिकट पर शिवहर से लड़ा, लेकिन हार गईं। इस बीच 2004 में बिहार पीपुल्स पार्टी का मर्जर कांग्रेस में भी हो गया। 2010 में बिहार विधानसभा चुनाव में लवली कांग्रेस के टिकट पर ही आलम नगर से खड़ी हुईं, लेकिन ये चुनाव भी हार गईं।

बाद में कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए लवली आनंद सपा में शामिल हो गईं। 2014 के लोकसभा चुनाव में लवली सपा के टिकट पर शिवहर से फिर लड़ीं, लेकिन हार गईं। 2015 के विधानसभा चुनाव में वो जीतन राम मांझी की पार्टी हम (सेक्युलर) से शिवहर से खड़ी हुईं, लेकिन फिर हार गईं।

अब चुनाव की तारीखें आने के बाद लवली आनंद राजद में शामिल हो गई हैं। क्योंकि, वो हमेशा शिवहर से ही लड़ती रही हैं और उनके पति आनंद मोहन भी शिवहर से सांसद रह चुके हैं, इसलिए माना तो यही जा रहा है कि इस बार भी वो शिवहर से ही लड़ सकती हैं। देखते हैं पार्टी बदलने का इस बार क्या नतीजा निकलता है?



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आनंद मोहन की गिनती बिहार के बाहुबली नेताओं में की जाती है। आनंद मोहन 1994 में डीएम की हत्या के मामले में सजा काट रहे हैं।


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इस वीडियो में मैं थोड़ा ज्यादा गुस्से में आ गया, एक दो बार गला भी भर आया है😢! पर आप सब मेरे चाहने वालों से, साहित्य से, भाषा से, उसकी मर्यादा से मैं माफ़ी नहीं मांगना चाहता ! यह जनबोधी कविता, यह ग़ुस्सा मेरे वंश की परम्परा है ! जिन्हें बुरा लगा हो वे मुझे गरियाने के लिए स्वतंत्र हैं 😢🙏 ।

उपनिषद भी कहता है कि कूपमंडूक की तरह अब भी अगर हम इस अंधियारी कोठरी से बाहर नहीं निकले तो धीरे-धीरे इस अनाचारी असुर लोक के ऐसे अंधकार में प्रवेश कर जाएंगे जो स्वयं हमारे विनाश का कारण बनेगा 👎। “असूर्य नाम ते लोकाः अंधे तमसावृताः।।”

उन्नीस सौ बासठ की चीन से लड़ाई के वक्त अपनी जरूरी जिम्मेदारी से बेखबर अपनी ही सरकार से अपनी कविता “परशुराम की प्रतीक्षा” में जब राष्ट्रकवि दिनकर जी ने सवाल पूछा था तो एक पंक्ति लिख दी थी, “छागियो करो अभ्यास रक्त पीने का !”

अपनी डायरी में दिनकर जी ने लिखा है कि मुझे एक शालीन कवि होने के नाते रक्त पीने जैसी बात शायद नहीं लिखनी चाहिए थी पर मैंने इसलिए लिख दी है ताकि आने वाले कल में इतिहास याद रखें कि जब सब सरकारी सरोकारी लोग मौन थे तो इस देश के एक कवि को इतना गुस्सा आया था कि उसने रक्त पी जाने जैसी कामना कर डाली थी !

🇮🇳😢 "कब तक मौन रहोगे विदुरों? कब अपने लब खोलोगे ? जब सर ही कट जायेगा तो किस मुंह से क्या बोलोगे..?”

वीडियो में कुमार विश्वास ने लगातार 19 मिनट तक हाथरस रेप केस को महाभारत की कथा और भारत की वर्तमान स्थिति से जोड़ा और नेताओं को जमकर कोसा। कुमार ने सवाल उठाए कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद भी लोग सवाल क्यों नहीं उठा रहे?


बकौल कुमार -

हर बार की तरह शुरुआत करते समय जय हिंद कहने में समस्या है। क्योंकि, हिंद भी अगर सुनता होगा और देश भी कभी सुनता होगा तो वो भी आपसे पूछता हाेगा कि मेरी जय कहने का तुम्हें अधिकार है या नहीं। जब बचपन में मैं महाभारत की पूरी कहानी अपनी दादी से सुनी थी, पिता से सुनी थी तो अक्सर सोचता था कि इतने नीतिज्ञ, इतने पढ़े-लिखे इतने विराट व्यक्तित्व के लोग एक ही सभाग्रह में उपस्थित थे। जहां चाहे द्वेष था, वैमनस्य था, ईर्ष्या थी, दोनों दलों के लोगों में एक-दूसरे के प्रति घृणा थी। ऐसा क्या हुआ होगा कि एक कुलवधु, जो बड़े आदर स्नेह के साथ उस परिवार में आई हो। जहां उसने भीष्म के चरण छुए हों, जिसने गुरुवर द्रोणाचार्य की पूजा की हो, महात्मा विदुर में पिता दिखाई दिए हों, जिसमें दुर्योधन में अपना देवर दिखाई दिया हो। जिसमें कृपाचार्य में अपना रिश्तेदार दिखाई दिया हो। उस पूरे परिवार में पूरे वंश में चाहे कितनी भी घृणा थी, कितना भी द्वेष हो, लेकिन ऐसा कैसे हो हुआ कि स्त्री को बालों से खींचकर सभाग्रह में लाया गया और सबने उसका चीरहरण किया।
सबसे बड़ी बात ये है कि कोई इस पर बोला नहीं। जिन लोगों ने उसे दांव पर लगाया वो तो अपराधी थे ही। लेकिन, मुझे उन लोगों पर दुख नहीं आता था, मुझे गुस्सा आता था भीष्म पर, द्रोणाचार्य पर, गुस्सा आता था कृपाचार्य पर। फिर मेरी छाती चौड़ी होती थी महात्मा विदुर के लिए। कि कोई एक आदमी ताे है जो खड़ा होकर धृतराष्ट्र से पूछ रहा है कि मेरी सिंहासन के प्रति पूरी निष्ठा है, लेकिन ये सवाल तो पूछूंगा ही कि आखिर ये हो क्या रहा है?
जिस समय विदुर सवाल पूछ रहे थे तो दुर्याेधन के चमचों ने उन्हें हस्तिनापुर का विद्रोही बताया था। और यह चमचों की छाप होती है कि अपने दुर्योधनों को बचाने के लिए और धृतराष्ट्रों को बचाने के लिए उनके अंधेपन को उस देश के ऊपर मढ़ देते हैं और कह देते हैं कि आप देश के खिलाफ जा रहे हैं। मैं बार-बार कहता हूं कि नंद मगध नहीं है। मगध था, है और रहेगा। भारत था, है और रहेगा। सरकारें आएंगी और जाएंगी, लेकिन ये देश रहेगा।
महाभारत में सवाल नहीं पूछा गया। लेकिन हमारी कविता ने कहा- अधिकार खोकर बैठे रहना, ये महादुष्कर्म है। न्यायार्थ अपने बंधकों को भी दंड देना धर्म है। इस हेतु ही तो कौरवों-पांडवों का रण हुआ, जो भव्य भारतवर्ष के कल्पांत का कारण हुआ।
बेटियों की, कुलवधुओं की, बहनों की चीखों पर खामोश होने जाने वाले हस्तिनापुर अक्सर खंडहर में बदल जाते हैं। लाशों पर रोने वाला कोई नहीं बचता। और ये जो पिछले दो दिन से देख रहा हूं कि सरकारें और सत्ताएं और उनका समर्थन करने वाले लोग, मैं आप सबसे प्रार्थना करता हूं कि आप किसी भी पार्टी के हों। उसके पूरे अच्छे से भक्त बनकर रहिए। चमचे बनकर रहिए। समर्थक बनकर रहिए। अगली बार भी इन्हें ही वोट दे दीजिए। पर क्या वोट देने से सवाल पूछने का अधिकार खत्म कर दिया है।
सवाल नहीं पूछेंगे तो ये अहंकारी हो जाएंगे, इन्हें लगेगा कि सब ठीक है। आप सबसे कहता हूं कि अपनी पार्टी से सवाल पूछिए। उन महिलाओं से सवाल पूछिए, जो बहुत ही सिलेक्टिव अप्रोच दिखाती हैं। उन जया बच्चन से सवाल कीजिए, जो आजम खान के अधोवृद्ध पर टिप्पणी करने पर चुप रह जाती हैं और मुंबई में कुछ होता है तो संसद में उसके खिलाफ बोलती हैं। स्मृति ईरानी से सवाल कीजिएगा कि जो हैदराबाद की बेटी पर तो आंसू बहाती हैं, लेकिन उन्नाव में उनका विधायक बिटिया के साथ दुष्कर्म कर उसे मारने की कोशिश करता है तो चुप रह जाती हैं। चिन्मयानंद पर चुप रह जाती हैं। बहनों, बेटियों, मांओं से कह रहा हूं कि आप सब पूछिए कि ये लोग चुप क्यों हैं?
इसलिए इस बिके हुए समय में जब सब बिके हुए हैं, आप और हम बचें हैं सामान्य नागरिक बोलेंगे तो सरकारें सुनेंगी। इनकी औकात नहीं है। अन्ना हजारे ठीक कहते थे, इनकी नाक दबाओ तो मुंह खुलता है। इनकी नाक दबाइए, इनका मुंह खुलेगा। आखिर में गुस्से में ऐसी कोई बात की हो जो आपको बुरी लगी तो क्षमा कीजिएगा। लेकिन बहुत कष्ट है। एक कवि हबीब जालिब पाकिस्तान पंजाब से थे। उन्होंने एक मुशायरे में जिया उल हक के वक्त में एक नज्म पढ़ी थी। तो वो नज्म पढ़ना शुरू की तो नीचे से किसी शायर ने उनका पजामा खींचा और कहा कि अभी वक्त नहीं है। तो उन्होंने कहा कि मैं वक्त देखकर तेवर बदलने वाला शायर नहीं हूं। उन्होंने कहा-

दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता


थोड़े दिनों के लिए, कुछ सालों के लिए दलित, हिंदू-मुस्लिम, ठाकुर बनिया, इन सब विमर्श से बाहर आइए, और देश का विमर्श संभालिए। बहुत मुश्किल वक्त है। फिक्र कर सकें तो बहुत अच्छा है और न कर सकें तो एक हजार साल में गुलामी गई है। फिर आपसे भी सवाल पूछा जाएगा आने वाले कल में..



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Kumar Vishwas said - how long will Vidro remain silent? When will you open your lips, when your head is cut, with what mouth will you speak?


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दुनिया कोरोनावायरस से जूझ रही है। हमने साल 2020 का आधे से ज्यादा वक्त संक्रमण के डर में गुजार दिया है। इसी महामारी के दौरान हम पहली बार वर्ल्ड वेजिटेरियन डे भी मना रहे हैं। कोरोना की शुरुआत में कहा जा रहा था कि यह चमगादड़ों के जरिए फैला। बाद में इसमें पेंगोलिन का नाम भी शामिल हुआ।

हालांकि, यह जानना जरूरी है कि क्या मांस खाने की आदत इंसान के लिए जानलेवा भी बनी हुई है। वैज्ञानिक इस बात की चेतावनी देते हैं कि कोरोनावायरस के बाद भी हमें कई महामारियों का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में हमें जानवरों से फैलने वाली बीमारियों पर गौर करने की जरूरत है।

4 में से 3 नए संक्रमण जानवरों से आते हैं

  • सेंटर्स फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, हम रोज कई तरह से जानवरों के संपर्क में आते हैं, लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि जानवरों में रहने वाले कुछ जर्म्स आपको बीमार भी कर सकते हैं। जानवरों के जरिए इंसानों तक पहुंचने वाले जर्म्स से होने वाली बीमारियों को जूनोटिक बीमारी कहते हैं। इन जर्म्स के कारण मौत भी हो सकती है।
  • सीडीसी के अनुसार, जूनोटिक बीमारियां काफी आम होती हैं। वैज्ञानिकों ने यह अनुमान लगाया है कि 10 में से 6 से ज्यादा संक्रमण जानवरों के जरिए इंसानों में फैल सकती है। इसके अलावा हर 4 नए या उभरते संक्रामक रोगों में से 3 जानवरों से आता है। यह जर्म्स खाने की वजह से भी फैल सकते हैं।

आपके नॉन वेज खाने के कारण लोग भूखे रहते हैं

  • पेटा के मुताबिक, भोजन के लिए जानवरों को पैदा करना या पालना काफी खराब है, क्योंकि जानवर ज्यादा अनाज खाकर थोड़ा मीट, डेरी प्रोडक्ट या अंडे उपलब्ध कराते हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि जानवरों को एक किलो मांस के लिए 10 किलो तक अनाज खिलाना पड़ता है।
  • वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार, दुनिया में जहां हर 6 में से 1 व्यक्ति रोज भूखा रहता है। ऐसे में मीट का प्रोडक्शन करना अनाज का गलत उपयोग होता है। अगर अनाज का इस्तेमाल सीधे इंसान ही करे, तो यह ज्यादा असरदार होगा।
  • पेटा की वेबसाइट बताती है कि प्लांट बेस्ड डाइट दुनिया में भुखमरी को खत्म कर सकती है। 2050 तक अनुमानित 900 करोड़ लोगों के लिए धरती पर पर्याप्त खाना होगा। हालांकि, ऐसा तभी मुमकिन होगा, जब अनाज का 40% उत्पादन भोजन के लिए पाले गए जानवरों के बजाए सीधे इंसानों के ही काम आए।
  • इसके अलावा दुनिया के कई हिस्से पानी की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे में मीट खाना उन लोगों की परेशानी और बढ़ा सकता है। पेटा इंडिया के अनुसार, एक शुद्ध वेजिटेरियन भोजन के लिए रोज 1137 लीटर पानी की जरूरत होती है, लेकिन मीट आधारित भोजन के लिए रोज 15 हजार लीटर से ज्यादा पानी की जरूरत होती है।

कई बीमारियों का कारण भी है मांसाहार
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया है कि हर साल जूनोसिस के कारण करीब 100 करोड़ लोग बीमारियों का शिकार होते हैं और इनमें से लाखों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। पेटा के मुताबिक, आपकी थाली में शामिल मीट, डेरी प्रोडक्ट्स और अंडों के कारण आप दिल की बीमारियों, मोटापा, कैंसर, डायबिटीज और यहां तक कि नपुंसक भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि वेजिटेरियन डाइट लेने वाले लोगों में कुछ तरह कैंसर की संभावना 50% तक कम हो जाती है।

अगर आप भी वेजिटेरियन डाइट अपनाना चाहते हैं तो यह कुछ टिप्स मददगार हो सकती हैं....

  • मोटिवेट रहें: अगर आपने अपनी प्लेट से नॉन वेज डाइट को हटाना चाहते हैं, तो आपको इसके लिए अच्छे कारण की जरूरत होगी। यह कारण ही आपको वेज डाइट पर रहने के लिए मोटिवेट करेगा। ऐसे में पहले यह पता कर लें कि आप नॉनवेज क्यों छोड़ना चाहते हैं।
  • अच्छी रेसिपी तलाशें: नॉन वेज छोड़ने के कारण हो सकता है कि आप स्वाद को लेकर परेशान रहें। ऐसे में अच्छी वेजिटेरियन रेसिपी आपकी मदद कर सकती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि आप एक साथ कई किताबें खरीद लें। इसके लिए आप इंटरनेट की मदद ले सकते हैं। एक-एक कर रेसिपी बनाने के कारण आपकी प्लेट में नयापन होगा और स्वाद भी बना रहेगा।
  • धीरे-धीरे नॉन वेज छोड़ें: वेजिटेरियन डाइट की तरफ जा रहे हैं और नॉनवेज एकदम नहीं छोड़ पा रहे हैं तो धीरे-धीरे अपनी डाइट में वेज की मात्रा बढ़ाएं। हर हफ्ते नई वेज रेसिपी इस काम में आपकी मदद कर सकती है। नॉन वेज छोड़ने की शुरुआत रेड मीट से करें। इसके बाद आने वाले हफ्तों में दूसरे तरह के मांसाहार को भी पूरी तरह बंद कर दें।
  • नया डाइट प्लान बनाएं: आप जो भी खाना रोज खाते हैं, उसकी एक लिस्ट तैयार करें। इस लिस्ट में आपकी प्लेट की हर जरूरी चीज को शामिल करें। इसके बाद देखें कि आपकी पुरानी नॉन वेज डाइट के वेज विकल्प क्या हो सकते हैं। नए विकल्पों की मदद से नई लिस्ट तैयार करें, जिसमें केवल वेज डाइट शामिल हो।
  • जंक फूड से बचें: वेजिटेरियन डाइट शुरू करने से आपको जंक फूड खाने का लाइसेंस नहीं मिल जाता है। हो सकता है कि नॉन वेज नहीं खाने के कारण जंक फूड की तरह ज्यादा अट्रैक्ट हो जाएं। अगर ऐसा हो रहा है तो अपनी डाइट में फलों और सब्जियों की मात्रा को बढ़ा दें। इसके अलावा साबुत अनाज, बीन्स, नट्स, सोया प्रोटीन और दूसरे पोषण आपकी मदद कर सकते हैं।
  • दूसरे देशों के खाने का स्वाद: वेजिटेरियन बनने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको इससे नई चीजों को ट्राय करने की प्रेरणा मिलती है। इस बात का फायदा उठाएं और इंटरनेट या रेसिपी बुक्स की मदद से नए देशों की वेज रेसिपी का स्वाद लें। इटली के पास्ता से लेकर भारत के भोजन, मसालेदार थाई भोजन से लेकर चीनी, इथियोपिया, मैक्सिको समेत कई जगहों के वेज खाने का मजा ले सकते हैं।
  • परिवार और दोस्तों की भूमिका: अगर आप वेजिटेरियन बनने जा रहे हैं, तो आपको परिवार और दोस्तों से इस बारे में बात करनी होगी। क्योंकि नॉन वेज बंद करने के बाद भी आप उनके साथ खाना तो खाएंगे ही। ऐसे में उन्हें इस बात की जानकारी देना आपके लिए मददगार होगा, ताकि अगली बार जब भी आप उनके साथ खाना खाएं तो आपके लिए वेज डिश मौजूद हो। कई बार लोग आपके इस फैसले को नहीं समझेंगे, लेकिन बिना बहस किए उन्हें अपनी बात समझने के लिए कहें।
  • मजा लें: यह सबसे ज्यादा जरूरी है कि आप अपनी डाइट में आए बदलाव का मजा लें। क्योंकि, अगर आप इस बात को लेकर दुखी रहेंगे, तो आपको हमेशा यही महसूस होगा कि कुछ मिस कर रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं है। आपने वेजिटेरियन रहना चुना है। इस बात का मजा लें और खुश रहें। लगातार अच्छा खाना खाते रहना इस काम में आपकी मदद कर सकता है।

वेजिटेरियन और वीगन में क्या फर्क है?
हमनें वेजिटेरियन और वीगन शब्द कई बार सुने हैं, लेकिन इनके मतलब को लेकर हमेशा एक कंफ्यूजन रहती है। पेटा के मुताबिक, वेजिटेरियन डाइट लेने वाले लोग किसी भी जानवर को अपनी डाइट में शामिल नहीं करते हैं। जबकि, वीगन जानवरों से मिलने वाले किसी भी चीज का सेवन नहीं करते, जैसे- अंडे, दूध, पनीर।

हालांकि, पेटा वीगन अपनाने पर ज्यादा जोर देता है। संस्था की वेबसाइट के मुताबिक, लोगों को लगता है कि डेयरी प्रोडक्ट्स में क्रूरता नहीं होती, लेकिन ऐसा नहीं है। डेयरी उत्पादों के लिए भी जानवरों को मीट की तरह ही परेशान किया जाता है।



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People are hungry due to your non- veg diet, 15 times more wastage of water in meat diet; 8 ways to help you in eating veg food


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संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में पूरी दुनिया में 1991 से हर साल एक अक्टूबर को इंटरनेशनल डे फॉर ओल्डर पर्संस यानी अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस या अंतरराष्ट्रीय वरिष्‍ठ नागरिक दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य है बुजुर्गों को उनके अधिकार दिलवाना।

14 दिसंबर 1990 को यूनाइटेड नेशंस की जनरल असेंबली ने तय किया था कि एक अक्टूबर को इंटरनेशनल डे ऑफ ओल्डर पर्संस के तौर पर मनाया जाए। इससे पहले 1982 में वर्ल्ड असेंबली ऑन एजिंग ने विएना इंटरनेशनल प्लान ऑफ एक्शन ऑन एजिंग को पास किया था। एक साल बाद यूएन की जनरल असेंबली ने भी इस पर मुहर लगाई थी।

भारत में 2007 में माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक पारित किया गया। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्‍सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्‍ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है।

1949 में हुई थी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना

1912 में क्विंग राजशाही का अंत हुआ और रिपब्लिक ऑफ चीन बना। यहीं से चीन का आधुनिक इतिहास शुरू हुआ। उस समय चीन को रिपब्लिक घोषित करने वाले नेशनलिस्ट नेता थे। इस दौरान वहां कम्युनिस्ट ताकतें भी तेजी से उभरीं। 1936 में जापान के हमले के खिलाफ दोनों ने मजबूती से युद्ध लड़ा। सेकंड वर्ल्ड वॉर खत्म होने पर 1945 में जापान ने सरेंडर किया। तब कम्युनिस्ट्स और नेशनलिस्ट्स के बीच जंग छिड़ गई थी। चार साल तक देश में सिविल वॉर की स्थिति बनी रही। इस युद्ध में चीन के लाखों नागरिक मारे गए थे। 1 अक्टूबर, 1949 को माओ त्से तुंग ने कम्युनिस्ट पार्टी की जीत का ऐलान किया और संविधान में देश का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना रखा।

इतिहास में आज की तारीख को इन घटनाओं के लिए याद किया जाता है...

  • 1838: भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने शिमला मैनिफेस्टो जारी किया, जिसकी वजह से पहला एंग्रो-अफगान युद्ध हुआ।
  • 1854ः भारत में डाक टिकट का प्रचलन आरंभ हुआ।
  • 1895ः पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान का जन्म।
  • 1945ः भारत के मौजूदा एवं 14वें राष्ट्रपति रामनाथ काेविंद का जन्म।
  • 1953ः आंध्र प्रदेश अलग राज्य बना। यह राज्य भी अब तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बंट चुका है।
  • 1960ः नाइजीरिया ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ।
  • 1967ः भारतीय पर्यटन विकास निगम की स्थापना हुई।
  • 1978ः भारत में लड़कियों की शादी की उम्र को 14 से बढ़ा कर 18 और लड़कों की 18 से बढ़ा कर 21 वर्ष किया गया।
  • 1996ः अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा पश्चिम एशिया शिखर सम्मेलन का उद्घाटन।
  • 1998ः श्रीलंका में किलिनोच्ची एवं मानकुलम शहरों पर कब्ज़े के लिए सेना एवं लिट्टे उग्रवादियों के बीच हुए संघर्ष में 1300 लोगों की मौत।
  • 2002: गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान नेवी के दो विमान फ्लायपास्ट के दौरान आपस में टकराए।
  • 2005ः इंडोनेशिया के बाली में हुए बम विस्फोट में 40 लोगों की मौत।
  • 2007ः जापान ने उत्तर कोरिया के खिलाफ प्रतिबंधों को अगले छह महीनों तक बढ़ाने की घोषणा की।
  • 2008: यूएस सीनेट ने भारत के साथ परमाणु व्यापार पर लगे तीन दशक के प्रतिबंध को खत्म किया।
  • 2016: भारत ने टेलीकॉम तरंगों की सबसे बड़ी नीलामी की। पहले दिन की बिक्री से 535.31 अरब रुपए की आय हुई।
  • 2019: फोर्ड मोटर कंपनी और महिंद्रा एंड महिंद्रा ने कहा कि वे भारत में जॉइंट वेंचर शुरू करेंगे।


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Today History for October 1st/ What Happened Today | International Day for Older Persons | Republic Of China Formed | Accident During Flypast in Goa


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सफेद कुर्ता पाजामा, सर पर बंधा सफेद साफा, कंधे पर रखा फावड़ा। कमला को कोई दूर से क्या, पास से भी देखे तो धोखा खा जाए कि कोई पुरुष खेत में काम कर रहा है। दिल्ली से करीब 120 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर के मीरापुर दलपत गांव की रहने वाली 63 साल की कमला ने अपनी जिंदगी के चार दशक मर्द बनकर खेतों में काम करते हुए गुजार दिए। एक महिला के लिए मर्द बनकर काम करना आसान नहीं था। लेकिन, जिंदगी के सामने ऐसे मुश्किल हालात थे कि उन्होंने घूंघट उतारकर सर के बाल काट लिए और पगड़ी बांध ली।

किसान परिवार में पैदा हुई कमला होश संभालते ही खेतों में काम करने लगी थीं। शादी हुई तो 17 महीने बाद ही पति की दुखद मौत हो गई। बाद में देवर के साथ उन्हें 'बिठा दिया' गया। इस रिश्ते से उन्हें एक बेटी हुई लेकिन, ये रिश्ता ज्यादा नहीं चल सका और वो अपने भाइयों के घर लौट आईं। कमला के छोटे भाई को कैंसर हो गया। दम तोड़न से पहले उन्होंने कमला से वादा लिया कि वो उनके बच्चों को पालेंगी और पत्नी का ध्यान रखेंगी।

कमला कहती हैं, भाई के दोनों बच्चे छोटे थे। कोई सहारा नहीं था। मैंने उनकी जिम्मेदारी संभाल ली और खेती का काम अपने हाथ में ले लिया। लेकिन, महिला के लिए अकेले खेत में जाकर काम करना आसान नहीं था। लोगों की नजरों से बचने के लिए मैंने मर्द का रूप धर लिया। बाल काटे और पगड़ी बांध ली।

भारत के खेतों में महिलाएं सदियों से काम करती रहीं हैं। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस समाज में आज भी मर्दवादी नजरिया हावी है। महिलाएं खेतों पर काम करने जाती तो हैं लेकिन, अकेले नहीं, बल्कि समूहों में या परिवार के दूसरे लोगों के साथ।

कमला अपनी भाभी के साथ। कमला की शादी के 17 महीने बाद ही उनके पति की मौत हो गई, उसके बाद उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली।

लेकिन, कमला के अकेले कंधों पर जमीन जोतने-बोने और फसल की देखभाल करने की जिम्मेदारी थी। रात-बेरात खेतों को पानी देने के लिए जाना पड़ता था। मर्दवादी समाज की नजर और तानों से बचने के लिए वो मर्द ही बन गईं। कमला कहती हैं, 'मैं बेधड़क खेतों में काम करती थी। फसल को पानी देना होता था तो रात को आती थी, सुबह तक काम करके जाती थी। कभी डर महसूस नहीं हुआ। मर्दों की पोशाक ने मुझे सबकी नजरों से बचा लिया।

वो कहती हैं, 'खेत में काम कर रही एक अकेली औरत के साथ कुछ भी हो सकता था, औरत अकेली हो तो हर आंख उस पर ठहरती है। लेकिन खेत में काम कर रहे अकेले मर्द पर किसी का ध्यान नहीं जाता। कमला ने मर्द बनकर लगभग चार दशकों तक खेतों में काम किया। उन्होंने उम्र के छह दशक पार करने के बाद भी न अपना ये रूप छोड़ा है और ना ही काम करना। कमला कहती हैं कि उन्हें भाग्य ने एक के बाद एक झटके दिए, लेकिन वो कभी डगमगाई और डरीं नहीं।

वो अपने पति की मौत, ससुराल में हुए शोषण को अब याद करना नहीं चाहतीं। इस बारे में सवाल करते ही उनके आंखें पथरा जाती हैं। वो कहती हैं, मैं अब उन सब बातों को याद करना नहीं चाहती। ना ही उसका कोई फायदा है।

कमला ने अपनी पूरी जिंदगी खेतों में काम करते बिता दी। वो कहती हैं, मैं हमेशा काम में लगी रहती थी। दिन में एक वक्त खाकर काम किया। सारा दिन ईख छोलती थी। भाभी से कह देती थी कि खाना देने मत आना, घर आकर ही खाऊंगी। इन खेतों ने हमारा परिवार पाला है। कमला ने सिर्फ खेत में ही काम नहीं किया, बल्कि वो गन्ना डालने मिल भी जाती थीं और मंडी भी। वो कहती हैं, 'मैं मर्दों के बीच अकेली औरत होती थी। लेकिन लोग पहचान ही नहीं पाते थे कि मैं औरत हूं।'

कमला के इस बात की खुशी है कि उनके एक भतीजे का घर बस गया है और दूसरे की भी जल्द शादी होने वाली है। वो कहती हैं, 'मेरी जिंदगी का मकसद पूरा हो गया। भाई से जो वादा किया था, निभा दिया।' हमेशा संघर्ष करती रहीं कमला को उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचने के बाद भी सुकून नहीं है। वो जिन खेतों में काम कर रहीं थी, वो उनके भाई की संपत्ति हैं। खेतों की ओर देखते हुए बात कर रही कमला कहती हैं, 'मेरे खेत...और ये कहते-कहते उनकी जबान रुक जाती है, खुद को संभालते हुए वो कहती हैं, अब तो ये भाई के बच्चों के खेत हैं।

मुजफ्फरनगर के मीरापुर दलपत गांव की रहने वाली 63 साल की कमला पिछले चार दशकों से अपने खेतों में मर्द बनकर काम कर रही हैं।

भारत में पारंपरिक तौर पर पिता की संपत्ति, जमीन-जायदाद भाइयों के हिस्से आती है और बहनों के हिस्से आती है ससुराल, जहां वो बाकी जिंदगी रहती हैं। लेकिन, भारत का कानून बेटियों को भी संपत्ति पर बराबर का हक देता है। कमला ने कभी अपना ये हक लेने के बारे में सोचा तक नहीं है।

अब जब उनका शरीर ढल रहा है, उन्हें अपनी आगे की जिंदगी की चिंता हैं। वो कहती हैं, 'मैं अपने लिए एक कमरा तक नहीं बना सकी। अपना सिर छुपाने के लिए मेरे पास अपनी कोई जगह नहीं है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मुझे घर दिलाने की कोशिश की थी। लेकिन, वो काम भी कोरोना में अटक गया है। बात करते-करते कमला के चेहरे के भाव कई बार बदलते हैं। उनके चेहरे पर भाई के परिवार को पालने का सुकून दिखाई देता है तो अकेलेपन का अफसोस भी और बुढ़ापे को लेकर चिंता भी।

एक औरत जो सारी जिंदगी समाज की पाबंदियों को तोड़कर अपने दम पर जीती रही, चलते-चलते कहती हैं, 'अगर मेरे आवास के लिए कुछ हो सके तो कीजिएगा। मैं भी कोशिश कर ही रही हूं। जो भी होगा, जैसे भी होगा, एक कमरा तो बना ही लूंगी।' मैं मन ही मन इस खुद्दार औरत को सलाम करती हूं और मेरे दिमाग में कई सवाल एक साथ कौंधने लगते हैं।

'समाज कमला जैसी असली हीरो का सम्मान क्यों नहीं कर पाता है? अपना सबकुछ त्याग देने वाली मेहनतकश कमला अब उम्र के आखिरी पड़ाव पर इतना अकेला क्यों महसूस कर रही हैं? उन्हें सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के तहत कोई फायदा क्यों नहीं मिल सका है?'

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kamala A women of muzaffarnagar turns as a man and starts farming to survive her Family


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महाराष्ट्र के सांगली जिले के अंकलखोप गांव के रहने वाले शीतल सूर्यवंशी एमबीए करने के बाद एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करते थे। लाखों की सैलरी थी, 6 साल तक उन्होंने अलग-अलग पोस्ट पर काम किया। लेकिन, 2015 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और ऑर्गेनिक अमरूद की बागवानी का बिजनेस शुरू किया। आज हर दिन 4 टन अमरूद उनके बगीचे से निकलता है। मुंबई, पुणे, सांगली सहित कई शहरों में वे अमरूद भेजते हैं। एक सीजन में 12 लाख रुपए की कमाई हो रही है।

34 साल के शीतल के पिता किसान हैं। दो भाई जॉब करते हैं, एक डॉक्टर है और दूसरा आर्किटेक्ट। शीतल कहते हैं, ' जब नौकरी छोड़कर खेती करने का फैसला लिया तो परिवार ने विरोध किया। उनका कहना था कि अच्छी खासी नौकरी छोड़कर खेती क्यों करना चाहते हो, खेती में मुनाफा ही कितना है..?

वो कहते हैं कि हम जहां रहते हैं वहां के ज्यादातर किसान गन्ने की खेती करते हैं। मेरे पिता भी गन्ने की खेती करते थे लेकिन इसमें ज्यादा मुनाफा नहीं होता था। ऊपर से समय भी ज्यादा लगता था। एक फसल तैयार होने में 15-16 महीने लग जाते थे। साथ ही फैक्ट्री में बेचने के बाद पैसे देर से अकाउंट में आते थे।

2015 में शीतल ने नौकरी छोड़ दी और ऑर्गेनिक अमरूद की बागवानी का बिजनेस शुरू किया।

इसलिए मैंने सोचा कि कुछ अलग करने का रिस्क लिया जाए। बाकी किसान तो गन्ना बो रहे हैं लेकिन हम दूसरी फसल लगाएंगे। शुरुआत मैंने अंगूर से की लेकिन इसमें कुछ खास मुनाफा नहीं हुआ। इसी बीच मेरा एक दोस्त मुझसे मिला। शिरडी में अमरूद की उसकी नर्सरी थी। उसने मुझे ऑर्गेनिक अमरूद उगाने का आइडिया दिया। इसके बाद मैं शिरडी गया, वहां के बागानों में गया और अमरूद की खेती को सीखा।

शीतल बताते हैं' 'जब मैंने अपने पिता को अमरूद उगाने के बारे में बताया तो उन्होंने मना कर दिया। वो नहीं चाहते थे कि गन्ने की जगह हम किसी और फसल को उगाने का जोखिम लें। फिर मैंने उन्हें समझा बुझाकर दो एकड़ जमीन पर अमरूद लगाने फैसला किया। इसके बाद मैं अलग-अलग शहरों में गया। वहां अमरूद के मार्केट, कहां कितनी डिमांड है और वहां तक हमें पहुंचने का रास्ता क्या होगा, मिट्टी कैसी होनी चाहिए, प्लांट की कौन सी नस्ल ठीक होगी, इन सब चीजों को लेकर कुछ दिन रिसर्च की।'

वो बताते हैं,' अगस्त 2015 में मैंने 2 तरह की अमरूद की फसल लगाई। एक ललित और दूसरी किस्म जी विलास की। पहले साल ही 20 टन का प्रोडक्शन हुआ था। 3-4 लाख रु की आमदनी हुई थी। इससे हमारा मनोबल बढ़ा और अगले सीजन से हमने और ज्यादा जमीन पर अमरूद उगाने का प्लान बनाया।'

वे केमिकल फर्टिलाइजर की जगह जैविक खाद का उपयोग करते हैं। पेड़ की सड़ी पत्तियों को गड्ढा खोदकर नीचे डाल देते हैं।

शीतल आज 4 एकड़ जमीन पर अमरूद उगा रहे हैं। 5 लोग उनके साथ काम करते हैं। हर एकड़ में 10 टन अमरूद निकलता है। अभी तीन प्रमुख किस्म ललित, जी बिलास और थाईलैंड पिंक का उत्पादन होता है। ललित की साइज छोटी होती है, जबकि जी बिलास और थाईलैंड पिंक का साइज बड़ा होता है।

शीतल बताते हैं,' गन्ने की खेती में टाइम तो ज्यादा लगता ही था, साथ ही पानी ज्यादा देना होता था। ऊपर से हर साल कल्टीवेशन की जरूरत होती थी। लेकिन, अमरूद की खेती में ऐसा नहीं होता है। एक बार प्लांट लगा दिया तो 10-12 साल की छुट्टी हो गई। इससे हर साल प्लांटेशन में होने वाला खर्च बचता है।

शीतल कहते हैं कि पिछले साल बाढ़ आई थी तो हमें नुकसान हुआ था। इस बार जब कोरोना के चलते लॉकडाउन लगा तो ज्यादा घाटा हुआ। 4-5 टन अमरूद पक के सड़ गया, उसे हम मार्केट में नहीं ले जा पाए। लेकिन, अब जुलाई के बाद से हालात सामान्य हो रहे हैं और धीरे-धीरे सबकुछ पटरी पर वापस लौट रहा है। अब मार्केट में वापस से हम अमरूद की सप्लाई कर रहे हैं।

वो कहते हैं कि हर साल काफी संख्या में अमरूद पक कर नीचे गिर जाते हैं, कई बार पूरे अमरूद बिक भी नहीं पाते। इसलिए आगे हम एक प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के बारे में विचार कर रहे हैं ताकि इन अमरूदों से दूसरे प्रोडक्ट तैयार किया जा सके।

आज हर दिन 4 टन अमरूद उनके बगीचे से निकलता है। उन्होंने तीन किस्म की अमरूद अपने बगीचे में लगाए हैं।

कैसे करें ऑर्गेनिक अमरूद की खेती

शीतल बताते हैं कि ऑर्गेनिक अमरूद की बागवानी शुरू करने से पहले रिसर्च जरूरी है। आपको जहां खेती करनी है वहां के मार्केट, डिमांड और ट्रांसपोर्टेशन के बारे में जानकारी होनी चाहिए। इसके साथ ही हम जिस जमीन पर बागवानी शुरू करने जा रहे हैं वो कम पानी वाली होनी चाहिए। हमें केमिकल फर्टिलाइजर की जगह ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर का उपयोग करना चाहिए। इससे जमीन की उपजाऊ शक्ति भी बढ़ती है। दो पौधों के बीच 9/6 की दूरी होनी चाहिए। जुलाई से सितंबर के महीने पौधे लगाए जाते हैं।

कितना वक्त लगता है एक पौधे के तैयार होने में

अच्छे किस्म की अमरूद के पौधे लगभग एक साल में तैयार हो जाते हैं। पहले साल में एक पौधे से 6-7 किलो तक अमरूद निकलता है। उसके कुछ समय बाद 10-12 किलो तक उत्पादन होने लगता है।

क्या- क्या सावधानियां जरूरी है
शीतल बताते हैं कि अमरूद की बागवानी के लिए सही समय और सही मिट्टी का होना जरूरी है। हमें कम पानी वाली मिट्टी पर इसकी प्लांटिंग करनी चाहिए। इस पर क्लाइमेट और बारिश का असर ज्यादा होता है, इसलिए उसके लिए पहले से तैयारी जरूरी है। ज्यादा प्रोडक्शन के लिए अक्सर लोग केमिकल फर्टिलाइजर का उपयोग करने लगते हैं। लेकिन, हमें इससे बचना चाहिए। इससे प्लांट को नुकसान तो होता ही है साथ ही हमारी जमीन की सेहत के लिए भी ये ठीक नहीं होता है।

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महाराष्ट्र के सांगली जिले के अंकलखोप गांव के रहने वाले शीतल सूर्यवंशी ऑर्गेनिक अमरूद की बागवानी करते हैं।


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बाबरी मस्जिद को गिराने के बारे में अब जो फैसला आया है, उस पर तीखा विवाद छिड़ गया है। इस फैसले में सभी कारसेवकों को दोषमुक्त कर दिया गया है। कुछ मुस्लिम संगठनों के नेता कह रहे हैं कि यदि मस्जिद गिराने के लिए कोई भी दोषी नहीं है तो फिर वह गिरी कैसे? सरकार और अदालत ने अभी तक उन लोगों को पकड़ा क्यों नहीं, जो मस्जिद ढहाने के दोषी थे? जो सवाल हमारे कुछ मुस्लिम नेता पूछ रहे हैं, उनसे भी ज्यादा तीखे सवाल अब पाकिस्तान के नेता, अखबार और चैनल पूछेंगे। इस फैसले को लेकर देश में सांप्रदायिक असंतोष और तनाव फैलाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं।

मान लें कि सीबीआई की अदालत श्री लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी और उमा भारती जैसे सभी आरोपियों को सजा देकर जेल भेज देती तो क्या होता? पहली बात तो यह कि इन नेताओं ने बाबरी मस्जिद के उस ढांचे को गिराया है, इसका कोई भी ठोस या खोखला-सा प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है। यह ठीक है कि ये लोग उस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे लेकिन इनमें से किसी ने उस ढांचे की एक ईंट भी तोड़ी हो, ऐसा किसी फोटो या वीडियो में नहीं देखा गया।

इसके विपरीत इन नेताओं ने उस वक्त भीड़ को काबू करने की भरसक कोशिश की, इसके कई प्रमाण उपलब्ध हैं। आडवाणी जी ने तो सारी घटना पर काफी दुख भी प्रकट किया। यदि अदालत इन दर्जनों नेताओं को अपराधी ठहराकर सजा दे देती तो क्या होता? यही माना जाता कि ठोस प्रमाणों के अभाव में अदालत ने मनमाना फैसला दिया है लेकिन सवाल यह भी है कि वह मस्जिद जिन्होंने गिराई, उन्हें क्यों नहीं पकड़ा गया और सजा क्यों नहीं दी गई?

क्या किसी मंदिर या मस्जिद या गिरजे को कोई यों ही गिरा सकता है? क्या उसको गिराना अपराध नहीं है? यदि आप मानते हैं कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में यह अपराध हुआ है तो वे अपराधी कौन हैं? अदालत का कहना है कि सबूत बहुत कमजोर थे। नेताओं के रिकॉर्ड किए हुए भाषण अस्पष्ट थे, जिनका ठीक-ठाक अर्थ समझना मुश्किल था। जो फोटो सामने रखे गए, उनमें चेहरे पहचाने नहीं जा सकते थे।

अदालत तो ठोस प्रमाणों के आधार पर फैसला करती है। यदि प्रमाण कमजोर हैं तो इसमें अदालत का क्या दोष है? प्रमाण जुटाना तो सीबीआई का दायित्व है लेकिन उसके बारे में तो कहा जाता है कि वह पिंजरे का तोता है। मान लें कि सीबीआई ठोस प्रमाण जुटा लेती और जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस कानून का भयंकर उल्लंघन था और भाजपा के इन नेताओं को सजा हो जाती तो क्या हो जाता? क्या मस्जिद फिर खड़ी हो जाती? जो दो-ढाई हजार लोग उसी विवाद के कारण मारे गए थे, क्या वे वापस आ जाते?

मंदिर-मस्जिद पर पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने जो लगभग सर्वमान्य फैसला दिया है, क्या वह निरर्थक सिद्ध नहीं हो जाता? देश में क्या हिंद-मुस्लिम तनाव दोबारा नहीं बढ़ जाता? नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में जो आंदोलन चल रहे थे, क्या उनका विरोध और तूल नहीं पकड़ता? यदि कुछ भाजपाई नेताओं को चार-पांच साल की सजा हो जाती तो क्या वे ऊंची अदालतों के द्वार नहीं खटखटाते?

पहले ही इस मुकदमे को तय होने में 28 साल लग गए। जिन 49 लोगों पर मुकदमा चला था, उनमें से 17 तो संसार से विदा हो गए हैं। उनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी भी थे। इस मामले पर 2009 में लिबरहान आयोग ने 900 पृष्ठों की रपट तैयार करके दी थी। सीबीआई ने 850 गवाहों से बात करके 7000 दस्तावेज खंगाले थे। मान लें कि वर्तमान मोदी सरकार की जगह कोई और सरकार दिल्ली में बैठी होती और वह अदालत पर दबाव डलवाकर या सच्चे-झूठे कई प्रमाण जुटाकर इन आरोपियों को कठघरे में डलवा देती तो क्या भारतीय लोकतंत्र के लिए वह शुभ होता?

यदि राम मंदिर के नेताओं को जेल हो जाती तो सोचिए कि आज के भारत का हाल क्या होता? ज्यादातर नेता वरिष्ठ नागरिक हैं। जनता में उनके प्रति श्रद्धा है। यदि फैसला उनके खिलाफ जाता तो सोचिए कि देश में एक नया तूफान उठ खड़ा होता या नहीं होता? आजकल पूरा देश कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, लद्दाख में फौजी संकट आन खड़ा है और कश्मीर में भी काफी उहापोह है, ऐसे हालात में बुद्धिमत्ता इसी में है कि यह फैसला किसी को कैसा भी लगे, फिर भी इसका स्वागत किया जाए।

इस मौके पर एक प्रासंगिक घटना यह भी हुई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने बड़ी घोषणा कर दी। बड़ी इसलिए क्योंकि अनेक हिंदू साधु-संत संगठन मांग कर रहे हैं कि मथुरा व काशी में भी मस्जिदें हटाकर मंदिर बनाए जाएं। मोहनजी ने कहा है कि यह काम संघ की कार्यसूची में नहीं है। इसी तरह उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के बारे में भी कहा है कि पड़ोसी देशों के हर शरणार्थी का स्वागत किया जाना चाहिए, उसका मजहब चाहे जो हो। बाबरी मस्जिद का यह फैसला अगर उल्टा आ जाता तो भारतीय लोकतंत्र और हिंदुत्व की राजनीति में आजकल जो ये स्वस्थ प्रवृत्तियां उभर रही हैं, वे काफी शिथिल पड़ जातीं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


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जब भी मैं शक्की लोगों के साथ कोविड-19 या जलवायु परिवर्तन पर बात करता हूं तो मैं एक उपमान का इस्तेमाल करता हूं: कल्पना करें कि आपका बच्चा बीमार है और आप उसे 100 डॉक्टरों को दिखाने ले जाते हैं। इनमें से 99 डॉक्टर एक ही बात कहते हैं और इलाज की सलाह देते हैं। जबकि एक अन्य कहता है कि चिंता की कोई बात नहीं है, बच्चे की बीमारी जादू जैसे गायब हो जाएगी।

क्या माता-पिता सौ में से इस एक डॉक्टर की सलाह मानेंगे? इसे आप मनगढ़ंत न मानें। असल में अगले राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटर के सामने यही सबसे बड़ा सवाल है। क्या आप अपने बच्चे या देश की सेहत को उस व्यक्ति के हाथों में देंगे, जो कोविड-19 और जलवायु परिवर्तन पर 100 में से एक डॉक्टर की सलाह मानता हो। वह ट्रम्प यूनिवर्सिटी के डॉ. डोनाल्ड ट्रम्प हैं, जहां से उन्होंने बीएस की डिग्री ली है।

यह मेरे लिए चौंकाने वाला है कि कितने परंपरावादी सौ में से ऐसे एक डॉक्टर की सलाह को मानेंगे। हो सकता है कि ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी के लोग प्रकृति में रुचि न रखते हों, लेकिन प्रकृति की उनमें रुचि है। जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 दोनों ने ही पिछले एक साल में हमारी जिंदगी को तगड़ी चोट दी है और इसकी एक ही वजह है कि इकोसिस्टम पर सीमा से अधिक दबाव।

हमने जंगलों को रौंदा, उन जंगली जानवरों को खींचा, जो ऐसे वायरस के वाहक थे, जिनके संपर्क में मनुष्य कभी नहीं आया था, CO2 का उत्सर्जन करके धरती को गर्म किया, जिससे तूफान बढ़े, जंगलों में आग लगी। जो बाइडेन अधिक सतर्कता से बढ़ना चाहते हैं और ट्रम्प सावधानी को हवा में उड़ा देना चाहते हैं। इसीलिए विज्ञान जर्नल साइंटिफिक अमेरिकन ने पहली बार कहा ‘साइंटिफिक अमेरिकन ने 175 साल के इतिहास में अब तक किसी भी राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी का समर्थन नहीं किया है।

2020 का चुनाव जिंदगी और मौत का सवाल है। हम आपसे स्वास्थ्य, विज्ञान और राष्ट्रपति पद के लिए जो बाइडेन को वोट देने का आग्रह करते हैं।’ यह चयन कठिन नहीं था। जब कोविड या पर्यावरण संरक्षण की बात होती है तो ट्रम्प का आदर्श वाक्य एक ही है : आपका धन या आपकी जिंदगी? आप किसे अधिक महत्व देते है? बाइडेन का आदर्श वाक्य है आपका धन और आपकी जिंदगी। अगर हम विज्ञान का अनुसरण करते हैं तो आपको इन दोनों में से किसी एक को चुनने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

कोविड-19 पर ट्रम्प का रुख था कि नौकरी या मास्क, सामाजिक दूरी या बिग टेन फुटबॉल, विज्ञान या चर्च। हर चीज में काला या सफेद। नतीजतन आज ढेरों अमेरिकियों के पास नौकरी नहीं है, उनके बच्चे घर पर ही पढ़ रहे हैं। क्योंकि ट्रम्प ने कक्षा, नौकरियों, रेस्टोरेंट में बैठकर खाने व चर्च में जाने के सामने मुखौटे खड़े कर दिए। कई हताश लोगों ने नौकरी, स्कूल और चर्च चुने और वे इसकी कीमत चुकाएंगे।

इसके विपरीत बाइडेन एकजुट करने वाले हैं। उनका कहना है कि अगर हर कोई मास्क पहनेगा, सामाजिक दूरी रखेगा और जांच कराएगा तो हम कई नौकरियां और जिंदगी दोनों को ही बचाएंगे। मास्क की नौकरी से कोई लड़ाई नहीं है। वे महामारी में रोजगार के विकास के ड्राइवर और उसकी रक्षा करने वाले हैं। मास्क स्कूल और अन्य इनडोर गतिविधियों को खोलने के वाहक हैं, दुश्मन नहीं।

यहीं बात जलवायु परिवर्तन पर हुई। ट्रम्प ने लोगों को से कहा कि पर्यावरण बचाना लोगों को बेरोजगार करना है। साफ हवा चाहिए या विकास दर। वहीं बाइडेन नौकरियों के साथ पर्यावरण बचाने के पक्षधर हैं। आप कुछ विज्ञान व बिजनेस पत्रिकाओं की राय देखें।

न्यू साइंटिस्ट: ‘अमेरिका में हरित अर्थव्यवस्था इतनी विकसित हो गई है कि इसमें फॉसिल ईंधन से बिजली बनाने वाले लोगों की संख्या की तुलना में 10 गुना लोगों को नौकरी दी जा सकती है।’
ब्लूमबर्ग.कॉम: ‘इलेक्ट्रिक कार व सोलर उत्पाद बनाने वाली टेस्ला की मार्केट वैल्यू एक्सोन मोबिल कॉरपोरेशन से अधिक हो गई। साफ है कि निवेशक फॉसिल ईंधन से हटकर ऊर्जा के अन्य स्रोतों में रुचि ले रहे हैं।’

इसके अलावा ऐसी कई अन्य राय आई हैं। हमें बस अधिक स्वस्थ होना होगा। हमारी हवा साफ हो, उद्योग, वाहन और घर साफ ऊर्जा तकनीक में अधिक सक्षम हों। जलवायु परिवर्तन हो या न हो, लेकिन 2030 तक दुनिया की जनसंख्या करीब एक अरब और बढ़ने जा रही है। अगर हम जलवायु परिवर्तन को दिवास्वप्न मानते रहे और यह एक कुस्वप्न साबित हुआ तो हम एक प्रजाति के रूप में वास्तविक खतरे में होंगे। इसलिए मैं उम्मीद करता हूं कि अगली डिबेट में बाइडेन सिर्फ यह कहें : ‘मेरे अमेरिकियों आप अपने जंगलों में आग बुझाने के लिए तो किसी आग लगाने वाले की सेवाएं नहीं लेना चाहेंगे।

आप नस्लीय घावों को भरने के लिए किसी विभाजक की सेवाएं भी नहीं चाहेंगे। आप किसी जहर घोलने वाले को अपने पानी को साफ करने के लिए तैनात नहीं करेंगे। इन सबसे अधिक आप ऐसे व्यक्ति की सेवाएं भी नहीं चाहेंगे जो प्रकृति के खिलाफ नौकरियों को और नौकरियों के खिलाफ स्वास्थ्य को खड़ा करे। वह भी ऐसे समय पर जब हमें स्पष्ट तौर पर इन सभी की जरूरत है और हम स्पष्ट तौर पर इन सभी को ले सकते हैं।’ (ये लेखक के अपने विचार हैं)।



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थाॅमस एल. फ्रीडमैन, तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में नियमित स्तंभकार


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वायरस के संक्रमण से बचना है तो वेजिटेरियन डाइट ही सेफ विकल्प है। स्वाइन फ्लू से लेकर कोरोना का संक्रमण फैलाने तक में जानवर एक बड़ी कड़ी साबित हुए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है, पिछले 50 सालों में 70 फीसदी वैश्विक बीमारियां जानवरों के जरिए फैली हैं।

कई रिसर्च में यह साबित हो चुका है कि हृदय रोग, कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा कम करना चाहते हैं तो वेजिटेरियन डाइट लें। खाने में फल-सब्जियों की मात्रा को बढ़ाएं। आज वर्ल्ड वेजिटेरियन डे है, इस मौके पर जानिए शाकाहारी खाना आपकी जिंदगी में कितना बदलाव जाता है....


4 वजह: वेजिटेरियन खाना क्यों बेहतर है

1. वायरल डिसीज का खतरा कम हो जाता है
2013 में आई यूनाइटेड नेशंस की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट कहती है, दुनियाभर में 90% से ज्यादा मांस फैक्ट्री फार्म से आता है। इन फार्म्स में जानवरों को ठूंस-ठूंसकर रखा जाता है और यहां साफ-सफाई का भी ध्यान नहीं रखा जाता। इस वजह से वायरल डिसीज फैलने का खतरा बढ़ जाता है। हाल ही में गुजरात में फैली वायरल डिसीज कांगो फीवर में भी संक्रमित जानवरों से इंसान को खतरा बताया गया है।

2. दिल ज्यादा खुश रहता है और बीमार कम होता है
नॉनवेज के मुकाबले वेजिटेरियन डाइट आपको ज्यादा स्वस्थ रखती है, इस पर रिसर्च की मुहर भी लग चुकी है। अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित रिसर्च कहती है, हृदय रोगों का खतरा घटाना है तो शाकाहारी खाना खाइए।

इंग्लैंड और स्कॉटलैंड में 44,561 लोगों पर हुई रिसर्च हुई। इसमें सामने आया कि नॉन-वेजिटेरियन के मुकाबले जो लोग वेजिटेरियन डाइट ले रहे थे उनमें हृदय रोगों के कारण हॉस्पिटल में भर्ती करने की आशंका 32 फीसदी तक कम है। इनमें कोलेस्ट्रॉल का लेवल और ब्लड प्रेशर दोनों ही कम था।

3. फल-सब्जियों की मात्रा बढ़ाते हैं तो कैंसर का खतरा घटता है
अब तक सैकड़ों ऐसी रिसर्च सामने आ चुकी हैं जो कहती हैं, खाने में अगर फल और सब्जियों की मात्रा बढ़ाते हैं तो कैंसर का खतरा कम हो जाता है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च के मुताबिक, अगर डाइट से रेड मीट को हटा देते हैं तो कोलोन कैंसर होने का खतरा काफी हद तक घट जाता है।

4. डायबिटीज कंट्रोल करना है तो 50% तक फल-सब्जियां खाएं
वियतनाम के मेडिकल न्यूट्रिशनिस्ट डॉ. बिस्वरूप चौधरी कहते हैं, अगर ब्लड शुगर कंट्रोल करना चाहते हैं तो दिनभर की डाइट में 50 फीसदी से ज्यादा फल और सब्जियां लें। इसके बाद ही अनाज शामिल करें। नॉनवेज, अंडा, मछली, मक्खन और रिफाइंड फूड लेने से बचें। ऐसा करते हैं तो ब्लड शुगर काफी हद तक कम किया जा सकता है।

अब बात उस पहल की जिसके कारण यह दिन शुरू हुआ
दुनियाभर के लोगों को शाकाहारी खाना खाने के लिए प्रेरित करने और इसके फायदे बताने के लिए वर्ल्ड वेजिटेरियन डे की शुरुआत हुई। 1 अक्टूबर 1977 को नॉर्थ अमेरिकन वेजिटेरियन सोसायटी ने यह पहल शुरू की।

इस लक्ष्य लोगों को यह भी समझाना था कि वेजिटेरियन डाइट नॉनवेज फूड से ज्यादा हेल्दी है। वेजिटेरियन डाइट बॉडी में अधिक फैट नहीं बढ़ाती और हृदय रोगों का खतरा कम करती है। इसमें मौजूद फायबर और एंटीऑक्सीडेंट्स में कैंसर से लड़ने की क्षमता है।

क्या होगा अगर सभी वेजिटेरियन बन जाएं?

  • 2016 में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की एक स्टडी आई थी। इसमें कहा गया था कि अगर दुनिया की सारी आबादी मांस छोड़कर सिर्फ शाकाहार खाना खाने लगे तो 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 70% तक की कमी आ सकती है।
  • अंदाजन दुनिया में 12 अरब एकड़ जमीन खेती और उससे जुड़े काम में इस्तेमाल होती है। इसमें से भी 68% जमीन जानवरों के लिए इस्तेमाल होती है। अगर सब लोग वेजिटेरियन बन जाएं तो 80% जमीन जानवरों और जंगलों के लिए इस्तेमाल में लाई जाएगी।
  • इससे कार्बन डाय ऑक्साइड की मात्रा कम होगी और क्लाइमेट चेंज से निपटने में मदद मिलेगी। बाकी बची हुई 20% जमीन का इस्तेमाल खेती के लिए हो सकेगा। जबकि, अभी जितनी जमीन पर खेती होती है, उसके एक-तिहाई हिस्से पर जानवरों के लिए चारा उगाया जाता है।

वेजिटेरियन और वेगन डाइट के फर्क को भी समझ लें

वेगन और वेजिटेरियन डाइट में एक सबसे बड़ा अंतर है। वेगन डाइट में ज्यादातर ऐसे फूड शामिल हैं जो पेड़े-पौधों से सीधे तौर पर मिलते हैं। वेगन डाइट में एक बात का खासतौर पर ध्यान दिया जाता है कि जो भी फूड ले रहे हैं वो रसायनिक पदार्थों से तैयार न हुए हों। यानी ऑर्गेनिक फार्मिंग से तैयार होने वाले फूड होने चाहिए।



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World Vegetarian Day 2020: What Are The Advantages Of Vegetarian Food For Your Health? Four Reasons for Going Veggie


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अमूमन लोग कॉफी तब पीते हैं, जब बॉडी में एनर्जी की कमी महसूस करते हैं या तनाव से जूझ रहे होते हैं। लेकिन, कॉफी के सबसे पुराने ठिकाने इथियोपिया में ऐसा नहीं है। यहां की हर दावत में आपको कॉफी मिलेगी। अफ्रीकी देश इथियोपिया को कॉफी का जन्मस्थल कहते हैं।

आज वर्ल्ड कॉफी डे है, इस मौके पर कॉफी के सबसे बड़े ठिकाने से जानिए 4 दिलचस्प किस्से...

1. जब कॉफी के बीज खाने के बाद बकरियां झूमने लगी थीं
इथियोपिया में कॉफी की खुशबू को कैसे पहचाना गया, इसका यहां एक सबसे दिलचस्प किस्सा मशहूर है। एक समय यहां कालदी नाम का चरवाहा अपनी बकरियों को काफा के जंगल से लेकर निकलता था। एक दिन उसने देखा, यहां जमीन पर पड़ी लाल चेरियां खाने के बाद बकरियां खुशी से झूम रही हैं। चरवाहे ने कुछ चेरियां तोड़ीं और खाईं। स्वाद पसंद आने पर चेरियों को अपने चाचा के पास ले गया।

चाचा बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और मठ में रहते थे। उन्होंने मजहबी बंदिश के कारण कॉफी की चेरी को आग में डाल दिया। जैसे ही बीजों ने जलना शुरू किया उसकी खुशबू नशे की तरह चढ़ने लगी। इसके बाद कालदी के चाचा ने इन बीजों का इस्तेमाल खुशबू के लिए करना शुरू किया।

इन्हीं लाल चेरियों से बीज निकालकर उससे कॉफी तैयार की जाती है।

2. जले हुए कॉफी के बीजों को पानी में डाला और ऐसे हुई इसकी शुरुआत
इथियोपिया में काफा के रहने वाले मेसफिन तेकले कहते हैं, यहां कॉफी का चलन कैसे शुरू हुआ इसकी कहानी मैंने अपने दादा से सुनी थी। वह कहते थे एक बार चरवाहे कालदी की मां ने आग में जले हुए बीजों को साफ किया। फिर इसे ठंडा होने के लिए पानी में डाल दिया और तेज खुशबू आने लगी। यहीं से कॉफी पीने का चलन शुरू हुआ।

मेसफिन कहते हैं, यहां के जंगल दुनियाभर के लिए एक तोहफे की तरह हैं। दुनियाभर के लोग यहां पर उगी कॉफी की चुस्कियां लेते हैं। कॉफी यहां की मेहमान नवाजी का हिस्सा है। बचपन से लड़कियों को इसे तैयार करना सिखाया जाता है।

कॉफी सेरेमनी की तैयारी।

3. सामाजिक रिश्तों को मजबूत करने के लिए 3 घंटे चलती है कॉफी सेरेमनी
इथियोपिया में हर खुशी के मौके पर कॉफी सेरेमनी आयोजित की जाती है। यह 2 से 3 घंटे का प्रोग्राम होता है। कॉफी को सर्व करने का काम घर की महिलाएं और बच्चे करते हैं। यह तैयार भी अलग तरह से होती है। कॉफी के दानों को रोस्ट करके उसे पीसते हैं और गर्म पानी के साथ मिलाते हैं। इसमें दूध नहीं मिलाया जाता है, लेकिन शक्कर की मात्रा अधिक रहती है। तैयार होने के बाद इसे सुराहीनुमा बर्तन में लाते हैं और मेहमानों को सर्व करते हैं।

4. यहां कॉफी के पेड़ लगाए नहीं जाते, अपने आप उग आते हैं
इथियोपिया के जंगल में कॉफी की 5 हजार से अधिक किस्में हैं। यहां की जमीन कॉफी के लिए इतनी उपजाऊ है कि पौधे लगाए नहीं जाते, अपने आप जमीन से उग आते हैं। यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है, 40 साल पहले इथियोपिया के 40 फीसदी इलाकों में काॅफी के जंगल थे। अब ये घटकर 30 फीसदी रह गए हैं।

कैसे हुई इंटरनेशनल कॉफी डे की शुरुआत
इस दिन का मकसद कॉफी को प्रमोट करना और इसे एक ड्रिंक के तौर पर सेलिब्रेट करना है। इसकी शुरुआत 1 अक्टूबर 2015 को हुई जब इटली के मिलान में इंटरनेशनल कॉफी ऑर्गेनाइजेशन की शुरुआत हुई।

साभार : बीबीसी, होमग्राउंड्स, कम्युनिकॉफी डॉट कॉम



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International coffee day 2020 interesting fact from home of coffee Ethiopia


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क्या हो रहा है वायरल : सोशल मीडिया पर दावा किया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने कर्मचारियों के DA की कटौती का आदेश वापस ले लिया है। दावे के साथ एक आदेश की कॉपी भी वायरल हो रही है। ये आदेश 21 सितंबर का बताया जा रहा है।

दरअसल, कोविड-19 लॉकडाउन के चलते हुई आर्थिक सुस्ती को देखते हुए मोदी सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के महंगाई भत्ते की तीन अतिरिक्त किश्तों पर रोक लगाने का फैसला लिया था। केंद्र सरकार के इस फैसले का असर 50 लाख कर्मचारियों और 61 लाख पेंशनभोगियों पर पड़ा है। अब दावा किया जा रहा है कि ये आदेश वापस ले लिया गया है।

और सच क्या है?

  • इंटरनेट पर हमें ऐसी कोई खबर नहीं मिली, जिससे पुष्टि होती हो कि केंद्र सरकार ने DA कटौती का आदेश वापस ले लिया है।
  • वायरल हो रही चिट्‌ठी को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि ये DA कटौती वापस लेने का आदेश नहीं है। बल्कि, केंद्र सरकार में जनरल सेक्रेटरी डॉ. एम रघवैय्या द्वारा लिखा गया एक आवेदन पत्र है, जो कि वित्त मंत्री को लिखा गया है।
  • इस पत्र में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से अनुरोध किया गया है कि वे केंद्र सरकार के कर्मचारियों और पेंशनर्स को डियरनेस अलाउंस ( DA) का लाभ देने के लिए उचित कदम उठाएं। इसी आवेदन को वित्त मंत्रालय का आदेश बताकर गलत दावे के साथ शेयर किया जा रहा है।
  • न्यूज एजेंसी पीटीआई की खबर के अनुसार, डॉ. एम रघवैय्या नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमैन के जनरल सेक्रेटरी हैं। और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी केंद्र सरकार के कर्मचारियों की DA कटौती वापस लेने का अनुरोध किया था। केंद्र सरकार के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पीआईबी फैक्ट चेक ने भी DA कटौती वापस लिए जाने वाले दावे को फेक बताया है।
  • केंद्र सरकार के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पीआईबी फैक्ट चेक ने भी DA कटौती वापस लिए जाने वाले दावे को फेक बताया है।


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Fact Check: Modi government withdrawing DA cut order of employees? Know the truth of viral messages


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संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में पूरी दुनिया में 1991 से हर साल एक अक्टूबर को इंटरनेशनल डे फॉर ओल्डर पर्संस यानी अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस या अंतरराष्ट्रीय वरिष्‍ठ नागरिक दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य है बुजुर्गों को उनके अधिकार दिलवाना।

14 दिसंबर 1990 को यूनाइटेड नेशंस की जनरल असेंबली ने तय किया था कि एक अक्टूबर को इंटरनेशनल डे ऑफ ओल्डर पर्संस के तौर पर मनाया जाए। इससे पहले 1982 में वर्ल्ड असेंबली ऑन एजिंग ने विएना इंटरनेशनल प्लान ऑफ एक्शन ऑन एजिंग को पास किया था। एक साल बाद यूएन की जनरल असेंबली ने भी इस पर मुहर लगाई थी।

भारत में 2007 में माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक पारित किया गया। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्‍सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्‍ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है।

1949 में हुई थी पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना

1912 में क्विंग राजशाही का अंत हुआ और रिपब्लिक ऑफ चीन बना। यहीं से चीन का आधुनिक इतिहास शुरू हुआ। उस समय चीन को रिपब्लिक घोषित करने वाले नेशनलिस्ट नेता थे। इस दौरान वहां कम्युनिस्ट ताकतें भी तेजी से उभरीं। 1936 में जापान के हमले के खिलाफ दोनों ने मजबूती से युद्ध लड़ा। सेकंड वर्ल्ड वॉर खत्म होने पर 1945 में जापान ने सरेंडर किया। तब कम्युनिस्ट्स और नेशनलिस्ट्स के बीच जंग छिड़ गई थी। चार साल तक देश में सिविल वॉर की स्थिति बनी रही। इस युद्ध में चीन के लाखों नागरिक मारे गए थे। 1 अक्टूबर, 1949 को माओ त्से तुंग ने कम्युनिस्ट पार्टी की जीत का ऐलान किया और संविधान में देश का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना रखा।

इतिहास में आज की तारीख को इन घटनाओं के लिए याद किया जाता है...

  • 1838: भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने शिमला मैनिफेस्टो जारी किया, जिसकी वजह से पहला एंग्रो-अफगान युद्ध हुआ।
  • 1854ः भारत में डाक टिकट का प्रचलन आरंभ हुआ।
  • 1895ः पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान का जन्म।
  • 1945ः भारत के मौजूदा एवं 14वें राष्ट्रपति रामनाथ काेविंद का जन्म।
  • 1953ः आंध्र प्रदेश अलग राज्य बना। यह राज्य भी अब तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बंट चुका है।
  • 1960ः नाइजीरिया ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ।
  • 1967ः भारतीय पर्यटन विकास निगम की स्थापना हुई।
  • 1978ः भारत में लड़कियों की शादी की उम्र को 14 से बढ़ा कर 18 और लड़कों की 18 से बढ़ा कर 21 वर्ष किया गया।
  • 1996ः अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन द्वारा पश्चिम एशिया शिखर सम्मेलन का उद्घाटन।
  • 1998ः श्रीलंका में किलिनोच्ची एवं मानकुलम शहरों पर कब्ज़े के लिए सेना एवं लिट्टे उग्रवादियों के बीच हुए संघर्ष में 1300 लोगों की मौत।
  • 2002: गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान नेवी के दो विमान फ्लायपास्ट के दौरान आपस में टकराए।
  • 2005ः इंडोनेशिया के बाली में हुए बम विस्फोट में 40 लोगों की मौत।
  • 2007ः जापान ने उत्तर कोरिया के खिलाफ प्रतिबंधों को अगले छह महीनों तक बढ़ाने की घोषणा की।
  • 2008: यूएस सीनेट ने भारत के साथ परमाणु व्यापार पर लगे तीन दशक के प्रतिबंध को खत्म किया।
  • 2016: भारत ने टेलीकॉम तरंगों की सबसे बड़ी नीलामी की। पहले दिन की बिक्री से 535.31 अरब रुपए की आय हुई।
  • 2019: फोर्ड मोटर कंपनी और महिंद्रा एंड महिंद्रा ने कहा कि वे भारत में जॉइंट वेंचर शुरू करेंगे।


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Today History for October 1st/ What Happened Today | International Day for Older Persons | Republic Of China Formed | Accident During Flypast in Goa


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क्या हो रहा है वायरल : सोशल मीडिया पर दावा किया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने कर्मचारियों के DA की कटौती का आदेश वापस ले लिया है। दावे के साथ एक आदेश की कॉपी भी वायरल हो रही है। ये आदेश 21 सितंबर का बताया जा रहा है।

दरअसल, कोविड-19 लॉकडाउन के चलते हुई आर्थिक सुस्ती को देखते हुए मोदी सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के महंगाई भत्ते की तीन अतिरिक्त किश्तों पर रोक लगाने का फैसला लिया था। केंद्र सरकार के इस फैसले का असर 50 लाख कर्मचारियों और 61 लाख पेंशनभोगियों पर पड़ा है। अब दावा किया जा रहा है कि ये आदेश वापस ले लिया गया है।

और सच क्या है?

  • इंटरनेट पर हमें ऐसी कोई खबर नहीं मिली, जिससे पुष्टि होती हो कि केंद्र सरकार ने DA कटौती का आदेश वापस ले लिया है।
  • वायरल हो रही चिट्‌ठी को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि ये DA कटौती वापस लेने का आदेश नहीं है। बल्कि, केंद्र सरकार में जनरल सेक्रेटरी डॉ. एम रघवैय्या द्वारा लिखा गया एक आवेदन पत्र है, जो कि वित्त मंत्री को लिखा गया है।
  • इस पत्र में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से अनुरोध किया गया है कि वे केंद्र सरकार के कर्मचारियों और पेंशनर्स को डियरनेस अलाउंस ( DA) का लाभ देने के लिए उचित कदम उठाएं। इसी आवेदन को वित्त मंत्रालय का आदेश बताकर गलत दावे के साथ शेयर किया जा रहा है।
  • न्यूज एजेंसी पीटीआई की खबर के अनुसार, डॉ. एम रघवैय्या नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमैन के जनरल सेक्रेटरी हैं। और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी केंद्र सरकार के कर्मचारियों की DA कटौती वापस लेने का अनुरोध किया था। केंद्र सरकार के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पीआईबी फैक्ट चेक ने भी DA कटौती वापस लिए जाने वाले दावे को फेक बताया है।
  • केंद्र सरकार के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पीआईबी फैक्ट चेक ने भी DA कटौती वापस लिए जाने वाले दावे को फेक बताया है।


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