महाभारत में द्रोणाचार्य भारद्वाज ऋषि के पुत्र थे। इनके गुरु परशुराम थे। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। अश्वथामा इनका पुत्र था। आचार्य अपने पुत्र अश्वथामा से बहुत ज्यादा मोह रखते थे। अपने पुत्र को भी कौरव और पांडवों के साथ युद्ध कला का ज्ञान दे रहे थे। इस शिक्षा में वे भेदभाव करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि वे अश्वथामा को ज्यादा से ज्यादा ज्ञान दे।
जब अश्वथामा के साथ ही कौरव और पांडवों की शिक्षा चल रही तब द्रोणाचार्य अपने पुत्र को अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा सरल अभ्यास करने के लिए कहते थे। सभी विद्यार्थियों को रोज मटके से पानी भरकर आश्रम लाना होता था और जो विद्यार्थी सबसे पहले पानी भरकर आ जाता था, उसे ज्यादा मिलता था।
द्रोणाचार्य ने अश्वथामा को छोटा घड़ा दिया था। ये बात अर्जुन को समझ आ गई, इसीलिए वह रोज पानी भरकर लाने में बिल्कुल भी देरी नहीं करते थे। जब द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दे रहे थे, उनके पास अर्जुन और अश्वथामा ही समय पर पहुंचे। अर्जुन ने पूरी विद्या सीख ली। अश्वथामा ने ब्रह्मास्त्र को आमंत्रित करना तो सीख लिया, लेकिन इस दिव्यास्त्र को वापस भेजना नहीं सीखा।
अश्वथामा सोच रहा था कि गुरु तो मेरे पिता ही हैं, मैं बाद में ये विद्या सीख लूंगा। पुत्र मोह में द्रोणाचार्य ने भी अश्वथामा पर विद्या सिखने के लिए जोर नहीं दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि महाभारत युद्ध के अंतिम चरण में जब अश्वथामा और अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र निकाल लिया था। तब श्रीकृष्ण के समझाने पर अर्जुन ने तो ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वथामा को तो दिव्यास्त्र वापस लेने की विद्या मालूम ही नहीं थी।
अश्वथामा के ब्रह्मास्त्र को श्रीकृष्ण ने नष्ट किया और भगवान ने अश्वथामा के माथे पर लगी मणि निकाल ली और उसे हमेशा भटकते रहने का शाप दे दिया।
अगर द्रोणाचार्य अपने पुत्र मोह पर काबू रखकर उसे भी सही शिक्षा देते और अन्य राजकुमारों के साथ भेदभाव नहीं करते तो अश्वथामा भी श्रेष्ठ योद्धा बन जाता।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Source From
RACHNA SAROVAR
CLICK HERE TO JOIN TELEGRAM FOR LATEST NEWS
Post a Comment