लोग महिला को प्रोडक्ट क्यों समझते हैं, हर विज्ञापन में क्यों लिखा होता है- गोरी-पतली लड़की चाहिए, जानें- इसकी वजह और उबरने के तरीके

देश और दुनिया में काले-गोरे के भेदभाव को लेकर बहस चल रही है। पर ये कोई नई बात नहीं है। सदियों पुरानी बात है। इस बार वजह है,अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड, जिनकी पुलिस कस्टडी में मौत हो गई थी। फिर अमेरिका में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए। नस्लवाद के खिलाफ कैंपेन शुरू हो गए।

बात भारत भी पहुंची, तो यहां फेयर एंड लवली ने अपने ब्रांड से फेयर शब्द हटा दिया। मैट्रिमोनियल साइट शादी डॉट कॉम ने कलरफोटो चेंज का फिल्टर ही रिमूव कर दिया। लेकिन, क्या इतना करने भर से यह भेदभाव कम हो जाएगा? क्या अपने देश में सिर्फ काले-गोरे का ही भेदभाव है? इनके पीछे की वजह क्या है? जिम्मेदार कौन है? क्या यह इन कंपनियों की ब्रांडिंग स्ट्रैटजी है? ऐसी तमाम बाते हैं, बातों के जवाब भी हैं...

दिल्ली की सेलेब्स साइकोलॉजिस्ट और रिलेशनशिप एक्सपर्ट्स डॉ. निशा कहती हैं कि भारत में बात सिर्फ काले-गोरे केभेदभाव तक ही नहीं सीमित है। इसके बहुत आगे तक की है। पहली बात- हमें कभी तो अपनी जिंदगी की जिम्मेदारी अपने हाथ में लेनी ही होगी, कब तक हम क्रीम बेचने वालों या भेदभाव करने वालों को दोष देते रहेंगे।दूसरी बात- जिंदगियां या कोई भी रिलेशनशिप सिर्फ कम्युनिकेशन से नहीं चलती हैं, अंडरस्टैंडिंग से चलती हैं।

डॉ. निशा कहती हैं कि यदि आप किसी इंसान को नहीं समझते हैं तो आप उसके साथ अपनी रिलेशनशिप को कभी बेहतर नहीं बना सकते हैं। यदि आपने किसी से बोला कि मुझे यह चीज नहीं मिल रही है और बाद में भी वह चीज आपको नहीं मिली तो इसका मतलब यह है कि सामने वाला आपको समझ ही नहीं रहा है। जिलेट के एक विज्ञापन में लड़केको बाइक की जगह लड़की दिखती है। आखिर ऐसे विज्ञापन क्यों बनाए जाते हैं, क्योंकि लोगों की सोच आज भी ऐसी है।

  • भेदभाव का मेंटल हेल्थ पर असर

डाॅ. निशा कहती हैं कि भेदभाव से हमारा साइकोलॉजिकल बिहेवियर बदल जाता है, यानी कुछ करने, सोचने, उठने-बैठने, बात करने हर हाव-भाव बदल जाता है। आत्मविश्वास कम हो जाता है। हम दूसरों से अपनी तुलना करना शुरू कर देते हैं। इसलिए अगर आपको कोई बदतमीज कहता है तो बोलिए हां, मैं बदतमीज हूं।यदि आप मेंटली हैप्पी हो तो सबकुछ अच्छा होगा। यदि आप मानसिक तौर पर संतुष्ट हैं, तो सबकुछ आपको बेहतर लगेगा। खुद को एक्सेप्ट करो, आप जैसे भी हो।

  • घर में, कॉलेज में, जॉब में...हर जगह भेदभाव होता है

डॉ. निशा के मुताबिक, लोग घरों में अपने दो बच्चों में तुलना करते हैं, यह भी तो भेदभाव ही है। कहते हैं कि ये पढ़ता है, वो नहीं पढ़ता है, ये डांस में अच्छा है, वो नहीं है। पढ़ाई में, जॉब में भी भेदभाव होता है। पूछा जाता है कि आप किस इंस्टीट्यूट से पढ़कर आए हो? यदि आप आईआईएम से पढ़कर आए हो तो ज्यादा इंटेलीजेंट हो। जबकि यह क्राइटेरिया नहीं हो सकता है। किसी के इंटेलीजेंसी का किसी इंस्टीट्यूट से वास्ता नहीं हो सकता है।

  • केस-1

महिलाएं खुद प्रोडक्ट बनने को तैयार, लड़के की वजह से एक लड़की ने अपना पूरा ड्रेसअप चेंज किया

डॉ. निशा कहती हैं कि मेरे पास एक कपल का केस आया था। लड़का, लड़की को इसलिए नहीं पसंद कर रहा था, क्योंकि वह गोरी नहीं थी। लड़का, लड़की से ज्यादा गोरा था। सिर्फ इस बात के चलते लड़की ने अपना पूरा ड्रेसअप चेंज किया, अपने नेल्स से लेकर अपनी पूरी बॉडी को चेंज किया।

इसकी एक ही वजह थी कि लड़का साइकी था और वह दूसरों को देखकर प्रभावित था। वह यह नहीं सोच पा रहा था कि जिंदगी इंसान के साथ कटती है, सूरत के साथ नहीं, सीरत के साथ कटती है। इससे यह भी पता चलता है कि लड़कियां या महिलाएं भी प्रोडक्ट बनने के लिए तैयार होती हैं।

  • केस-2

तुम पार्क में जॉगिंग के लिए जाती हो, तुम्हें देखने के लिए लड़के आ जाते होंगे
डॉ. निशा बताती हैं कि दो दिन पहले मेरे यहां एक दोस्त आए थे। मैंने उनसे कहा कि आजकल मैं रोजाना रनिंग के लिए जाती हूं। उन्होंने मुझसे बोला, अरे तुम रोज रनिंग के लिए जाती हो, तब तो पार्क में तुम्हें देखने के लिए लड़के भी आ जाते होंगे। मुझे यह लाइन सुनकर बहुत गुस्सा आया।

कोई यह कैसे सोच सकता है कि दुनिया के सारे लड़के बस यही देखने के लिए बैठे हैं कि कब कोई लड़की पार्क में आएगी, वो उसे देखने पहुंच जाएंगे। इससे यह पता चलता कि वह व्यक्ति एक महिला के बारे में क्या सोचता है। उसके लिए एक महिला प्रोडक्ट है।

कम्प्लेक्शन की समस्या हर किसी में है

  • निशा कहती हैं कि यह इस वजह से है, क्योंकि हर किसी को सुंदर लड़की चाहिए। हर विज्ञापन में लिखा होता है, गोरी और पतली लड़की चाहिए। हैंडसम लड़का चाहिए, भले ही बाल गंजे हों। यह इस वजह से है, क्योंकिकॉम्प्लेक्शन की समस्या हर किसी में है, चाहे कोई अमीर हो या गरीब हो।
  • जब आपको खुद पर ही भरोसा नहीं है कि आप सुंदर हो? तो कोई भी आपको आकर यह बोल देगा कि आप सुंदर नहीं हो, फिर आपको भी कॉम्प्लेक्शन हो जाएगा। डॉ. निशा के मुताबिक, ब्यूटी प्रोडक्ट से ज्यादा उन्हें खरीदने के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं और हर किसी के लिए फिजिकल भी अट्रैक्शन जरूरी नहीं है।

भेदभाव की बातें मेंटल हेल्थ से जुड़ी हुई हैं

  • डॉ. निशा कहतीहैं कि मेरे पास एक फेशियल एक्सप्रेशन से जुड़ा केस आया था। लड़के ने कहा कि मेरी नाक टेढ़ी है, मुझे इसकी सर्जरी करवानी है। मैंने उससे पूछा कि आज तक आपको ऐसा कितने लोगों ने बोला? उसने बोला मुझे बस सर्जरी करवानी है। डॉक्टर के पास गया तो उन्होंने कहा कि नाक में तो कोई समस्या नहीं है। हां, अगर पैसा ज्यादा है तो सर्जरी हो जाएगी।
  • कुल मिलाकर भेदभाव की बातें हमारे मेंटल हेल्थ से जुड़ी हुई हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि किसी चीज को लेकर क्या सोचते हैं। यदि आप खुद को नहीं पसंद करते हो, तो यह कैसे सोच सकते हो कि कोई दूसरा व्यक्ति आपको पसंद करेगा? और क्यों करेगा? यह सब कुछ आपके आत्मविश्वास पर निर्भर करता है कि आप खुद पर कितना यकीन करते हो।

आप खुद को जज करेंगे, तो दूसरा भी आपको जज करेगा

  • डाॅ. निशा कहती हैं कि यदि आप खुद को बार-बार जज करेंगे। खुद की आलोचना करेंगे, तो जाहिर सी बात है कि दूसरे को भी आप को बोलने का मौका मिलेगा।यदि किसी महिला ने खुद को बहुत अच्छे से ड्रेसअप और मेकअप किया हुआ है, यह देखकर यदि कोई दूसरी महिला हर्ट होती है, तो इसका मतलब वह इमोशनली डैमेज है।
  • हमारा सांवला, काला यागोरा रंग ये कैसे बता सकता है कि हम कीमती हैं या नहीं। और इसके आधार पर यह दूसरा कोई कैसे तय करेगा कि हम ठीक हैं या नहीं।इसलिए कभी यह न सोचें कि आपको किसी दूसरे से अप्रूवल लेने की जरूरत है। बजाय खुद की तारीफ करें।

मेकअप करूं या न करूं, यह खुद तय करें

  • डॉ. निशा कहती हैं कि यदि मैं मेकअप नहीं करती हूं और कोई मुझसे कहता है कि तुम बुरी लग रही हो, तो उसके कहने से मैं क्यों मेकअप करने लगूं। बल्कि मुझे खुद यह तय करना होगा कि मैं मेकअप करूं या न करूं, क्या पहनूं और क्या न पहनूं। यह कोई और जज नहीं कर सकता है, इसका क्राइटेरिया तो हमें खुद तय करना होगा।

जिंदगी कैसे जीयें, इसे कोई और नहीं तय कर सकता

  • डॉ. निशा कहती हैं कि मुझे लगता है कि यदि एक इंसान रोज यह एक्सेप्ट करना शुरू कर दे कि वह परफेक्ट है। और दुनिया में कोई ऐसा इंसान नहीं है, जिसे रोज कुछ सीखने या अपने में सुधार की जरूरत नहीं है। मुझे भी इसकी जरूरत है। इसके बाद हर कोई आपको एक्सेप्ट करना शुरू कर देगा। आप अपने तरीके से जिंदगी जीयें, इसे कोई और कैसे तय कर सकता है।

हमारा जजमेंटल क्राइटेरिया गलत होता है

  • डॉ. निशा कहती हैं कि हमारा जजमेंटल क्राइटेरिया गलत होता है। जब हम यह सोचते हैं कि वो बड़े हैं तो बोल सकते हैं, तुम छोटे हो, इसलिए नहीं बोल सकते हो। यहीं से परसेप्शन की प्रॉब्लम शुरू होती है। यह बचपन में ही बन जाती है। इसलिए आपकी जैसी परवरिश होगी, सोच भी वैसी ही बनेगी।
  • यदि घर में यह बताया गया कि लड़कियों को जूते की नोक पर रखो तो आपको हमेशा ऐसा ही लगेगा। यदि लड़की को यह बोला जाता है कि यहां तो कर लो, जब ससुराल जाओगी तो पता चल जाएगा, तो उसके दिमाग वो सोच हमेशा जिंदा रहेगी।

बच्चों के बारे में परसेप्शन न बनाएं

  • कई बार पैरेंट्स भी बच्चों के बारे में परसेप्शन बना लेते हैं, लेकिन यह कभी नहीं समझते कि वह बच्चे को नहीं समझ पा रहे हैं। कई बार तो पैरेंट्स को लगता है कि बस वहीं सही हैं, बच्चा नहीं। किसी बच्चे के करेक्टबनने में पैरेंट्स सबसे बड़ा रोल प्ले करते हैं, क्योंकि वे बच्चों को स्कूल से भी पहले एजुकेट करना शुरू कर देते हैं।

किसी को दिखाने के लिए अंग्रेजी न बोलें-
अंग्रेजी बोलने वाले हिंदी बोलने वालों से भेदभाव करते हैं। डॉ. निशा बताती हैं कि कुछ दिन पहले मेरे पास एक केस आया था। महिला ने कहा कि मेरे एक्स हसबैंड हिंदी में बोलते थे, मुझे यह पसंद नहीं था। मैंने उससे कहा कि इसमें बुराई क्या है? यदि आप अच्छी हिंदी बोलते हैं तो उस पर गर्व करिए। किसी को दिखाने के लिए अंग्रेजी में क्यों बोलेंगे। यदि कोई अंग्रेजी नहीं बोलता तो वह अच्छा इंसान नहीं होगा, यह कैसे डिसाइड कर सकती हो।



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