लोकल ट्रेनें नहीं चल रही हैं; टैक्सी से रोज ऑफिस जाना महंगा पड़ रहा है, इसलिए दोबारा जौनपुर लौटने की सोच रहा हूं

कोरोना के चलते देश की आर्थिक राजधानी मुंबई मेंमार्च में लॉकडाउन लगा। धंधा-पानी सब बंद हो गया तो यहां रहने वाले लाखोंप्रवासियों को अपने घर लौटना पड़ा। देश ने मुंबई- महाराष्ट्र से उत्तरप्रदेश-बिहार के लिए आजादी के बाद सबसे बड़ा पलायन देखा। ये प्रवासी इस उम्मीद से अपने गांव लौटे थे कि जो मुंबई उन्हें भूखेरहने परमजबूर कर रही है, कम से कम गांव में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाएगा।

कुछ महीने गांव में गुजारा हुआ लेकिन फिर वहां दिक्कत आने लगी तो कुछ प्रवासियों ने दोबारा उसी मुंबई में लौटने का विचार किया। कुछ ऐसे प्रवासियों की कहानी पढ़िए जो यहां सेपलायन कर गए थे....

गांव में खाने-पीने की दिक्कत हुई तोटैक्सी चलाने मुंबई लौट आए

मुंबई के एंटॉप हिलगैलेक्सी नाका, फायर ब्रिगेड के पास हमारी मुलाकात टैक्सी चलाने वाले नंदलाल पांडे से हुई। वे लॉकडाउन और कोरोना के चलते मुंबई से पलायन करने वाले हजारों टैक्सी चालकों में से एक हैं। उन्होंने बताया कि बड़ी मुश्किलसेजैसे-तैसे कर मैं यूपी के सुल्तानपुर के अपने गांवप्राणनाथपुर पहुंचा।वहां 15 दिन होम क्वारैंटाइन होना पड़ा।

फोटो माहिम जंक्शन की है। यहां कोरोना वॉरियर्स के सम्मान में वॉल पर पेंटिंग्स बनाई गई है।

इस दौरान किसी ने भी हम प्रवासियों की कोई सुध नहीं ली, ग्राम प्रधान ने पूछा तक नहीं। इस बीच जून से दोबारा मुंबई में टैक्सी शुरू होने की खबर लगी तो मैं मुंबई लौट आया। क्योंकि गांव में खाने-पीने की दिक्कत होने लगी थी। वे बताते हैं कि यहां (मुंबई) किसी तरह दाल-रोटी चल रही है जबकि गांव जाने पर वो भी मुश्किल हो गया था। गांव में खेती-बाड़ी तो है, लेकिन दाल नहीं है। चावल-गेहूं खाने से थोड़ी ही आदमी जी सकता है।

जीने के लिए दाल, नमक, मसाला चाहिए तब आदमी खाना बनाएगा और भोजन उसके पेट में जाएगा। यहां मुंबई में भी लॉकडाउन के दौरान हम लोगों को सिर्फ चावल ही मिला था। हां यह सच है कि लॉकडाउन के दौरान बीएमसी के लोगों ने हम लोगों कीथोड़ी मदद की थी।

इन दिनों मुंबई में टैक्सी कम ही चल रही हैं। हम टैक्सीवालों को सिर्फ दो यात्रियों को ही ले जाने की इजाजत है। ये यात्री भी अस्पताल, एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन आने- जाने वाले ही होने चाहिए। फैशन स्ट्रीट, हाजी अली और क्रॉफर्ड मार्केट में आज भी हम टैक्सी चालकों को देखते ही चलान काट दिया जाता है। 200 से 500 रुपए के बीच फाइन किया जा रहा है। यही वजह है कि दिनभर टैक्सी चलाते हैं, तो किसी तरह 200-250 रुपए खाने-पीने के लिए बचा पाते हैं।

15 जून से मुंबई में कुछ जगहों के लिए लोकल ट्रेनें चलना शुरू हुईं हैं। लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए सफर कर रहे हैं।

यूपी में रोजगार का कोई साधन उपलब्ध नहीं होने पर वापस आए

फरमूद अली उप्र में प्रतापगढ़ जिले के रूबीपुर गांव के रहने वाले हैं। कहते हैं कि मुंबई से लौटा तो गांव वालों ने अच्छा व्यवहार नहीं किया। ड्राइवरी आती थी, दस साल मुंबई में टैक्सी चलाने का अनुभव था लेकिन, वहां गांव में कोई काम नहीं मिला। जब यहां महाराष्ट्र में राज्य सरकार ने आधे टाइम टैक्सी चलाने की इजाजत दी, तो वापस आ गया। फरमूद अली कहते हैं कि मुंबई में कोरोना का खतरा ज्यादा है। लेकिन, रोजी रोटी मिल रही है। इसलिए यहां रहना उनके लिए बेहतर है।बहुत ज्यादा कमाई तो नहीं हो रही, लेकिनघर चलाने भर का खर्च निकल जाता है।

कोरोना के डर से मुंबई से भागा, हालात बिगड़ने लगे, तो लौट आया

मिराज पत्रावाला पेशे से टैक्सी मैकेनिक हैं। उनका राशनकार्ड नहीं है। वो बताते हैं कि मुंबई में कोरोना के केस बढ़ने लगे तो मैं गांव चला गया। गांव में टैक्सी मैकेनिक का कोई काम नहीं मिल रहा था, तो मुंबई लौटने को मजबूर हो गया। यहांइस वक्त 90 फीसदी टैक्सी नहीं चल रही हैं। इसलिए किसी दिन 100 रुपए तो कभी 50 रुपए तक का ही काम मिल रहा है।

मगर कुछ समाजसेवी संस्थाएं जो खाना बांटती हैं, उनके भरोसे गुजारा हो जाता है। मिराज की आर्थिक स्थिति भी मुंबई वापस आने पर टैक्सी चालकों जैसी ही है। इसलिए वे मांग करते हैं कि सरकार को टैक्सी चलाने की पूरी अनुमति देनी चाहिए ताकि लोगों को रोजगार मिले।

यूपी के रहने वाले श्यामजीत यादव मुंबई में ऑटो रिक्शा चलाते हैं। वे कहते हैं कि मैं गांव गया तो मुझे न पैसे मिले और न ही मुझे राशन दिया गया।

बनारस में फॉर्म भरवाने के बावजूद न तो मुझे राशन मिला और न रोजगार

श्यामजीत यादव ऑटो रिक्शा चलाते हैं। वो यूपी सरकार के भरवाए गए एक फॉर्म को दिखाते हुए कहते हैं कि जब वे बनारस के अपने गांव पहुंचे, तो वहां उनका कोरोना टेस्ट किया गया और उनसे एक फॉर्म भरवाया गया। उन्हें बताया गया कि उनके खाते में एक हजार रुपएडाला जाएगा और कुछ राशन दिया जाएगा। लेकिनउन्हें न रुपए मिलेऔर न ही राशन।एक महीने में ही वे मुंबई की तरह गांव में भी खाने-पीने के लिए परेशान होने लगे।

श्यामजीत बताते हैं कि मैं खुद भी रिक्शा चलाता हूं और मेरे दो और ऑटो चलते हैं। मैं 3 जून को मुंबई लौटा हूं। पहले हम ऑटो रिक्शा चालक पूरे दिन मेहनत करके करीब एक हजार रुपए का धंधा करते थे और गैस भराने का खर्च निकालने के बाद लगभग 600-700 रुपया बचा लेते थे। अब पहले जैसी स्थिति तो नहीं है। लेकिन, 200-250 रुपए से 300 रुपए किसी तरह कमा ले रहे हैं।

वे बताते हैं कि आस-पास की बस्ती में कई कोरोना संक्रमित मरीज पाए गए हैं। जिसकी वजह से मुंबई लौटने पर वे भीतर ही भीतर डरे हुए हैं। मगर बनारस में बेरोजगारी व भूखमरी से मरने से अच्छा है कि मुंबई में मेहनत करें और जो भी संकट आए उसका मुकाबला किया जाए।

प्राइवेट वाहन से रोज ऑफिस जाना महंगा पड़ रहा

मुंबई के सांताक्रुज इलाजे में रहने वाले जनार्दन सिंह शिपिंग लाइन में टेक्निकल एक्जीक्यूटिव हैं। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वालेजनार्दन कोरोना और लॉकडाउन की वजह से मुंबई छोड़ने को मजबूर हो गए थे। वे 50 हजार रुपए खर्च कर इनोवा कार से परिवार के साथ जौनपुर अपने गांव गए थे।

वो अपने परिवार को छोड़कर मुंबई वापस आ गए हैं। बताते हैं कि मुंबई में लगभग 40-50 हजार रुपए के बीच उनकी सैलरी है। लेकिन, यहां अभी तक लोकल ट्रेन शुरू नहीं हुई है। रोज सांताक्रुज से दक्षिण मुंबई के फोर्ट स्थित ऑफिस तक प्राइवेट वाहन से जाने का खर्च वो उठा नहीं सकते, इसलिए दोबारा जौनपुर लौटने की सोच रहे हैं।

यूपी के रहने वालेजनार्दन सिंह मुंबई शिपिंग लाइन में टेक्निकल एक्जीक्यूटिव हैं। यहां उन्हें ऑफिस जाने के लिए प्राइवेट वाहन लेना पड़ता है। इसलिए वे अब फिर से वापस लौटना चाहते हैं।

जनार्दन सिंह जैसे लोगों के गांव लौटने पर सबसे बड़ी समस्या रोजगार की है। यूपी में शिपिंग लाइन नहीं है। इसके अलावा उन्हें जो मंथली पैकेज मिलता है, यूपी में इतना ज्यादा पैसा मिलने की उम्मीद उन्हेंकम ही है। वे कहते हैं कि यदि यूपी में यहां से कम वेतन भी मिलता है, तो भी वे एडजस्ट करने को तैयार हैं।

दो महीने बाद गुजरात से मुंबई लौट तो पर अभी भी यहां कोई काम नहीं है

गुजरात के भावनगर जिले के मूल निवासी घनश्याम पटले का बांद्रा मेंभारत डायमंड बूर्स में 100 वर्ग फीट का छोटा सा कारखाना है। उनके कारखाने में 8 लोग काम किया करते थे। महाराष्ट्र में लॉकडाउन होते ही वे अपने परिवार के साथ मार्च महीने में ही भावनगर स्थित अपने गांव निकल गए। करीब दो महीने भावनगर रहने के बाद घनश्याम 10 जून को मीरारोड परिवार के साथ वापस लौट आए।

वे बताते हैं कि मैं मुंबई लौट तो आया, पर हमारे पास कोई काम नहीं है। एक दिन छोड़कर भारत डायमंड बूर्स स्थित कारखाना दो-तीन घंटे के लिए जाता हूं। लेकिन, डायमंड का एक्सपोर्ट अब तक शुरू नहीं होने की वजह से पूरा धंधा ठप्प है। ऊपर से हर महीने 50 हजार रुपए का किराया देना पड़ता है। यदि हालात ठीक नहीं होते हैं, तो मेरी तरहछोटे डायमंड के कारखानेवालेंकारखाना बंद करने परमजबूर हो जाएंगे।

मुंबई और मीरा रोड में तेजी से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं। जो प्रवासी यहां लौटकर आए हैं, वे फिर से वापस गांव जाना चाहते हैं।

घनश्याम कहते हैं कि यदि मुंबई और मीरा रोड के हालात नहीं सुधरते हैं, तो वे फिर भावनगर लौट जाएंगे। क्योंकि डायमंड इंडस्ट्री का फिलहाल कुछ भविष्य नजर नहीं आ रहा है। मुंबई और मीरा रोड में जिस तेजी से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं। उसको देखते हुएयहां रहना भी मुश्किल होता जा रहा है। दिनभर घर में ही बैठे रहना पड़ता है। यहां कोरोनाहोने के खौफ में रहने से अच्छा है कि फिर से भावनगर गांव चला जाऊं। जब महामारी कंट्रोल होगी औरबिजनेस भी शुरू होंगे फिर लौटेंगे।



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लॉकडाउन लगने के बाद मुंबई में रहने वाले प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांव चले गए थे। अब वे धीरे-धीरे मुंबई वापस लौट रहे हैं। हालांकि अभी भी यहां उनके लिए मुश्किलें कम नहीं हैं।


from Dainik Bhaskar
via RACHNA SAROVAR
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