यदि भारत-चीन मिलकर काम करें तो 21वीं सदी को एशियाई सदी बनने से कोई रोक नहीं सकता; सीमा विवाद के स्थायी हल के लिए अब चीनी पहल जरूरी

मैंने 25 जून के ‘भास्कर’ में लिखा था कि गलवान घाटी में हुई मुठभेड़ भारत और चीन के नेताओं की सोची-समझी साजिश नहीं लगती। यह मामला शीर्ष नेताओं की बातचीत से हल हो सकता है। अब यही हुआ है। यह ठीक है कि हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल नेता नहीं हैं लेकिन उनकी हैसियत एक केंद्रीय मंत्री की तो है ही।

हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री से दो बार बात की और तीन बार दोनों देशों के जनरलों की बात हुई लेकिन बात सिरे चढ़ी डोभाल और वांग यी के लंबे संवाद के बाद! वांग यी चीन के सिर्फ विदेश मंत्री ही नहीं हैं, वे ‘स्टेट काउंसलर’ हैं और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आत्मीय हैं।

गलवान घाटी में 15 जून को जो मुठभेड़ हुई थी, उस पीपी 14 नामक स्थान से चीनी फौजें वापस हट रही हैं, वहां ठोके हुए तंबू और डटाई हुई फौजी जीपें पीछे हटाई जा रही हैं। यही प्रक्रिया गोगरा-हाॅट झरनों और पेंगांग झील के आस-पास के इलाके में दोहराई जा रही है। भारत भी समान रूप से फौजें पीछे हटा रहा है ताकि दोनों फौजों के बीच चार किमी का एक खाली (बफर) क्षेत्र तैयार हो जाए।

वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ यह खाली-क्षेत्र इतना निरापद रहा है कि पिछले 40-45 साल में दोनों सेनाओं के बीच कोई बड़ी खूनी मुठभेड़ कभी नहीं हुई थी। इसका उदाहरण अपनी मुलाकातों में मैं हमेशा पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और फौजी जनरलों को देता था और उनसे कहता था कि चीन के साथ 3500 किमी की अनिश्चित सीमा रेखा पर शांति बनी हुई है तो आपकी और हमारी सुनिश्चित सीमा होने पर भी वहां निरंतर घुसपैठ, मुठभेड़ और आतंकवाद की घटनाएं क्यों होती रहती हैं?

भारत और चीन के सैनिक अपनी नियंत्रण रेखा का उल्लंघन साल में सैकड़ों बार जाने-अनजाने करते रहते हैं लेकिन मुठभेड़ की यह नौबत 15 जून को कई दशकों बाद आई। अब उम्मीद करनी चाहिए कि दोनों पक्ष वैसी स्थिति बहाल कर लेंगे, जैसी अप्रैल में थी। यदि वैसा हो जाता है तो भारत-चीन इस सीमा-विवाद के स्थायी हल की तरफ बढ़ सकते हैं।

यह ठीक है कि चीन के अरुणाचल संबंधी दावे पर भारत टस से मस नहीं हो सकता और अक्साई चिन पर चीन ढील नहीं दे सकता। फिर भी दोनों देश बातचीत के द्वारा ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (एलएसी) को वास्तविक बना सकते हैं। अभी वह अस्पष्ट और अपरिभाषित है।

यह आशा इसलिए बंधती है कि गलवान घाटी की गर्मागर्मी में भी दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने असाधारण संयम का परिचय दिया। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में क्या कभी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का नाम भी लिया? कभी नहीं। उधर शी जिनपिंग के मुंह से एक शब्द भी हमने भारत के खिलाफ नहीं सुना। क्या इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों नेताओं की जानकारी के बिना ही गलवान-मुठभेड़ हो गई थी। ज़रा याद करें 1962 के दिनों में दिए गए नेहरु, चाऊ एन लाई और माओत्से तुंग के बयानों को।

इतना ही नहीं, मोदी ने अपने भाषणों में चीन का नाम लिए बिना विस्तारवादी प्रवृत्तियों की आलोचना जरूर की लेकिन मोदी या किसी मंत्री या किसी भाजपा नेता ने चीनी माल के बहिष्कार की घोषणा नहीं की। भाजपा कार्यकर्ताओं ने चीनी राष्ट्रपति के पुतले नहीं फूंके और चीनी माल की होली नहीं जलाई। वे हमारे टीवी चैनलों के अति उत्साही एंकरों की तरह चीखने-चिल्लाने पर उतारू नहीं हुए। हां, चीन के सरकारी टीवी चैनल और सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने भारत के विरुद्ध कुछ फूहड़ टिप्पणियां जरूर कीं लेकिन चीनी सरकार के प्रवक्ता ने प्रायः कोई आक्रामक या उत्तेजक बात नहीं कही।

यह ठीक है कि भारत ने चीन पर कई निराकार दबाव डाले। वे दबाव निर्गुण भी थे। उनके कारण चीन को कोई भयंकर हानि नहीं हुई लेकिन चीन समझ गया कि यदि गलवान-कांड ने तूल पकड़ा तो चीनी सरकार के लिए वह मुश्किलभरा सौदा बन सकता है। चीनी ‘एप्स’ पर प्रतिबंध, कई द्विपक्षीय समझौतों पर रोक, लद्दाख में फौजी जमावड़ा, नए रूसी हथियारों का सौदा आदि ऐसे कदम थे, जिन्होंने चीन को प्रेरित किया कि वह बातचीत की पहल करे। भारतीय जनता द्वारा चीन विरोधी प्रदर्शनों का असर भी हुआ होगा।

इस भारत-चीन विवाद के प्रति दुनिया के लगभग सभी देशों ने तटस्थता का रुख अपनाया लेकिन अमेरिका ने भारत का समर्थन और पाकिस्तान ने विरोध का पैंतरा अपनाया। मुझे खुशी है कि भारतीय और चीनी नेता इन फिसलपट्टियों पर फिसले नहीं। अब ऐसा माहौल बन रहा है कि कुछ दिनों में मोदी और शी एक-दूसरे से सीधी बात कर सकते हैं या मिल भी सकते हैं।

जरूरी यह है कि इस सीमा-विवाद को हमेशा के लिए हल कर लिया जाए। यदि चीन दावा करता है कि उसने अपने 14 पड़ोसी देशों में से 12 के साथ सीमा-विवाद शांतिपूर्वक हल कर लिए हैं तो वह भारत के साथ क्यों नहीं कर सकता? यदि भारत-चीन मिलकर काम करें तो 21वीं सदी को एशियाई सदी बनने से कोई रोक नहीं सकता। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


from Dainik Bhaskar
via RACHNA SAROVAR
CLICK HERE TO JOIN TELEGRAM FOR LATEST NEWS

Post a Comment

[blogger]

MKRdezign

Contact Form

Name

Email *

Message *

Powered by Blogger.
Javascript DisablePlease Enable Javascript To See All Widget